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( २० ) परन्तु आचार्य अभय देव ने अपनी वृत्ति में पुस्तकान्तर से जो उपोद्घात उद्धृत किया है उसमें प्रश्नव्याकरण के दो श्रुतस्कन्ध बताए हैं—आश्रवद्वार और संवर द्वार । तथा प्रत्येक श्रुतस्कन्ध के पाँच-पाँच अध्ययन सूचित किए हैं-"दो सुयक्खंधा पण्णत्ता-आसवदारा य संवरदारा य । पढमस्सणं सुयक्खंधस्स''पंच अज्झयणा ।" दोच्चस्सणं सुयक्खंधस्स'' पंच अज्झयणा'" । उपोद्घात का उक्त कथन आचार्य अभय देव के समय में मान्य नहीं था, अत. वे लिखते हैं कि दो श्रुतस्कन्ध की नहीं, एक श्रुतस्कन्ध की मान्यता ही रूढ़ है-"याचेयं द्विशु तस्कन्धतोक्ता ऽस्य सा न रूढा, एक तस्कन्धताया एव रूढत्वात् ।' मेरे विचार में दो श्रुतस्कन्ध की मान्यता ही तर्कसंगत है। जब आश्रव और संवर दो भिन्न विषय हैं तो तदनुसार दो श्रुतस्कन्ध ही होने चाहिएँ, एक नहीं। पता नहीं, एक श्रुतस्कन्ध की मान्यता किस आधार पर प्रचलित हो गई।
रचना शैली और प्रतिपाद्य प्रस्तुत वर्तमान प्रश्न व्याकरण की रचना पद्धति काफी सुघटित है, कतिपय अन्य आगमों की तरह विकीर्ण नहीं है। आश्रव प्रकरण में हिंसादि प्रत्येक आश्रव के तीस-तीस नाम बताए हैं । इनके कटु परिणामों का भी विस्तार से वर्णन है। अहिंसा आदि प्रत्येक संवर का निरूपण भी काफी विस्तार और उपयोगिता से वर्णित है । उक्त आश्रव एवं संवर के वर्णन पर से अध्येता के अन्तर्मन में निवेदन और संवेदन की, निवृत्तिऔर प्रवृत्ति की, तथा असंयम और सयम की यथोचित अनुकूलप्रतिकूल प्रतिक्रिया ठीक तरह से जागृत हो जाती है।
आश्रव संवर के निरूपण के साथ तत्कालीन दार्शनिक मत, दण्डनीति, अनेक आर्य अनार्य देश, गृहजीवन, कला, उद्योग, पशु, पक्षी, भोग, विलास, शिल्पी कर्मकर, भवनों के विभिन्न रूप, वाहन, समुद्रयात्रा, म्लेच्छ जातियां, स्त्री-पुरुष के लक्षण, ऐतिहासिक व्यक्ति, साधु चर्या, युद्ध आदि विविध विषयों का वर्णन भी काफी महत्त्वपूर्ण है । एक प्रकार से तत्कालीन प्राचीन लोकसंस्कृति का एक स्पष्ट चित्र मनश्चक्षुओं के समक्ष उपस्थित हो जाता है। आज के शोधार्थी छात्र प्रश्न व्याकरण में से प्राचीन भारतीय इतिहास से सम्बन्धित विपुल सामग्री प्राप्त कर सकते हैं ।
प्रश्न व्याकरण की भाषा अर्धमागधी प्राकृत है । पर, वह समासबहुल होने से अती व जटिल होगई है । प्राकृत का साधारण अभ्यासी तो ठीक तरह से समझ भी नहीं सकता। संस्कृत या हिन्दी की टीकाओं के विना प्रश्न व्याकरण के भावों को समझ लेना सरल नहीं है । कुछ स्थानों पर तो ऐसा लगता है कि जिज्ञासु पाठक को सरलता से सीधा अर्थबोध न कराकर स्पष्ट ही पाण्डित्यबोध कराया जा रहा है, जिसकी वहाँ कोई अपेक्षा नहीं है।