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॥श्रीः॥ विज्ञप्तिः
गङ्गानाथान् गुरून् नत्वा बहुग्रन्थानुवादकान् । तन्नाम्ना ग्रन्थमालायाः प्रक्रमं करवाण्यहम् ॥ प्रशस्तपादभाष्यस्य कन्दलीटीकया सह । प्रकाशः क्रियतेऽस्माभिरनुध देशभाषया ॥ संशोधनं कृतं यत्नैर्हिन्दीभाषानुवादिना । अस्मत्सहायकेनैव श्रीदुर्गाधरशर्मणा ॥ लिखिता भूमिकाप्येका न्यायशास्त्रविदाऽमुना। वैशेषिकपदार्थानां सम्यग बोधो यथा भवेत् ॥ मालायाः सुमनश्चाद्यं सौमनश्यं प्रसारयेत् ।
प्रार्थना काशिकापुर्या क्षेत्रेशचन्द्रशर्मणः ॥ शास्त्रज्ञ पण्डितों के अतिरिक्त अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त अथवा हिन्दी भाषा के वेत्ता साधारण बुद्धिमान् जनता में अपवा विद्वानों में प्राचीन भारतीय दर्शनों के प्रति विशेष रुचि आजकल पाई जाती है। परन्तु संस्कृत भाषा में पूर्ण ज्ञान न होने के कारण वे मूल ग्रन्थों का अध्ययन नहीं कर सकते हैं। इस त्रुटि की पूर्ति के लिए यह आवश्यक है कि हमारे मुख्य मुख्य दार्शनिक तथा अन्य शास्त्रों के ग्रन्थों का प्रामाणिक अनुवाद के साथ प्रकाशन हो, जैसे ग्रीक तथा लातिन भाषा की लोएब क्लै सिकल लाइब्रेरी ( LOEB CLASSICAL LIBRARY ) में हुआ है। काशी से प्रकाशित 'अच्युतग्रन्थमाला' ने अंशतः यह कार्य किया है। परन्तु इस ग्रन्थमाला में कुछ ही शास्त्रों का समावेश हुआ। यह ग्रन्थमाला भी इधर बन्द हो गई ।
___ सन् १९५८ में काशी राजकीय संस्कृत महाविद्यालय के "वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय में परिणत होने पर अनुसंधान संचालक के पद पर जब मेरी नियुक्ति हुई, मैंने प्रथम उपकुलपति श्री आदित्यनाथ झा जी से प्रार्थना की कि ऐसी एक ग्रन्थमाला हम भी प्रकाशित करें और उन्होंने इस प्रस्ताव को स्वीकृत किया। ग्रन्थमाला का नाम रखा गया 'गङ्गानाथझा ग्रन्थमाला'। इस नामकरण के दो कारण थे-(१) हमारे दिवङ्गत गुरु विद्यासागर महामहोपाध्याय डा० श्री गङ्गानाथ झा जी ने बहुत संस्कृत ग्रन्थों का अनुवाद किया था और (२) गुरुजी के अनुवादों के कारण हमारे देश में और विदेशों में भारतीय दर्शन का ज्ञान पर्याप्त मात्रा में फैला ।
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