Book Title: Prakrit Vidya 2000 07 Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain Publisher: Kundkund Bharti Trust View full book textPage 8
________________ उनके प्रभावक विशिष्ट व्यक्तियों का उल्लेख आगमग्रन्थों में निम्नानुसार मिलता है— ___ 1.धर्मानुरागी:- रत्नत्रयरूपी (सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्ररूप), अहिंसाप्रधान एवं दयामूलक धर्म में जिसकी दृढश्रद्धा एवं अनुराग होता है, वह 'धर्मानुरागी' व्यक्ति है। इसे सर्वश्रेष्ठ अनुराग' माना गया है। समस्त आसन्न-भव्यजीवों एवं सज्जनों में यह अनुराग विशेषरूप से अवश्य ही पाया जाता है। इस भाव से अलंकृत सज्जनों में पूर्वोक्त धर्म के साथ-साथ इस धर्म के धारक धर्मात्माओं में भी विशेष अनुराग पाया जाता है और उसके पीछे धर्मलाभ एवं धर्मप्रभावना के अतिरिक्त अन्य कोई भौतिक स्वार्थ निहित नहीं होता है। धर्मानुराग को आचार्य सोमसेन विद्य ने 'अपायविचय धर्मध्यान' माना है"येन केन प्रकारेण जैनधर्म: प्रवर्धते। तदेव क्रियते पुम्भिरपायविचयं मतम् ।” –(1/35, पृष्ठ 10) अर्थ:- जैसे भी संभव हो, वैसे 'जैनधर्म की प्रभावना हो' —ऐसा विचार करना 'अपायविचय धर्मध्यान' है। ___ 2.भावानरागी:- अच्छे कार्यों एवं अच्छा कार्य करनेवाले व्यक्तियों की प्रतिष्ठा पर कोई आँच न आने पाये —इस दृष्टि से जो निरन्तर सजग एवं प्रयत्नशील रहता है, उसे 'भावानुरागी' कहते हैं। यदि कदाचित् कोई व्यक्ति उच्च, प्रतिष्ठित पद को या वेष को धारण करके उसके प्रतिकूल निकृष्ट आचरण करे; लोकविरुद्ध, समाजविरुद्ध, धर्मविरुद्ध कार्य भी करे; तो भी 'यदि इस पद या वेष में रहते इसका अपमान हुआ, तो लोग ऐसे पद या वेष के धारक अन्य सच्चे लोगों को भी संदेह की दृष्टि से देखेंगे और उनका समुचित सम्मान नहीं करेंगे' - इस विचार से विवेकपूर्वक उसके दोष ढंकता है। 'सम्यग्दर्शन' के आठ अंगों में इसे 'उपगूहन अंग' भी कहा गया है। इसके बहाने पापाचरण को संरक्षण नहीं दिया जाता है, बल्कि धर्माचरण एवं सदाचारियों की प्रतिष्ठा की रक्षा की जाती है। 'भावानुराग' के विषय में जिनदत्त श्रेष्ठी का दृष्टान्त प्रसिद्ध है। तदनुसार किसी चोर ने 'क्षुल्लक' का वेश धारण करके जिनमन्दिर से छत्र चुराकर भागना चाहा, किन्तु पकड़े जाने पर यह कह दिया कि “यह तो जिनदत्त श्रेष्ठी ने मंगवाया था, मैं तो उन्हीं के कहने पर ले जा रहा था।" बाद में माली आदि के द्वारा जिनदत्त श्रेष्ठी के सम्मुख पूरा वृत्तान्त प्रस्तुत किये जाने पर जिनदत्त श्रेष्ठी ने कहा कि “इन्हें छोड़ दो, ये निर्दोष हैं; इनसे यह छत्र मैंने ही मँगवाया था।" इसप्रकार 'जैन व्रती चोर होते हैं' —ऐसा लांछन लगने से बचा लिया। किन्तु अकेले में उस क्षुल्लकवेशधारी को चोरी जैसे दुष्कर्म के लिए वचनों से प्रताड़ित भी किया तथा व्यापार आदि के निमित्त सहायता देकर आत्मनिर्भर बनाया, ताकि उसे पुन: चोरी जैसा दुष्कर्म न करना पड़े। 006 प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000Page Navigation
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