Book Title: Prakrit Vidya 2000 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 7
________________ भावना एवं किसी भी दृष्टि से निर्बल व्यक्ति को मात्र हितकामना से मदद करना सामाजिकता को आध्यात्मिकता विकास से लेकर लोक- शिष्टाचार एवं व्यावहारिकता का व्यापक धरातल प्रदान करता है। सच्चे अर्थों में सामाजिक मनुष्य धन-वैभव आदि भौतिक वस्तुओं की अपेक्षा पारस्परिक सौहार्द और सम्मान को अधिक महत्त्व देता है और इन्हीं कार्यों से वह श्रेष्ठ बनता है । प्राकृत-साहित्य के महान् कवि शूद्रक इस विषय में लिखते “सत्कार: खलु सज्जनः कस्य न भवति चलाचलं धनम् ? य: पूजयितुमपि न जानाति स पूजाविशेषमपि कि जानाति ?” — (मृच्छकटिकम्, 2/15) - I अर्थ – दूसरों का आदर-सत्कार करना ही सज्जनों की सम्पत्ति होती है । भौतिक धन तो किसका नश्वर नहीं है? अर्थात् सभी का नश्वर ही होता है । जो व्यक्ति दूसरों का आदर-सत्कार करना नहीं जानता है, वह क्या पूजा के वैशिष्ट्य को कभी जान सकता है ? मात्र लौकिक व्यावहारिकता ही नहीं, अपितु उदात्त आध्यात्मिकता के व्यापक स्तर तक सामाजिकता को व्यावहारिकरूप में प्रस्तुत करने के लिये जैन मनीषियों ने चार प्रकार के 'अनुराग' की चर्चा की है— 1. धर्मानुराग, 2. भावानुराग, 3. प्रेमानुराग और 4. अस्थिमज्जानुराग। इन चार अनुरागों का उल्लेख एवं इन्हें अपनाने की प्रेरणा सर्वप्रथम इन्द्रभूति गौतमस्वामी, जिन्हें 'भगवान् महावीर के प्रधान शिष्य गौतम गणधर ' के नाम से भी जानते हैं, ने 'पडिक्कमणसुत्त' (प्रतिक्रमणसूत्र ) नामक प्राकृतग्रंथ में की है— “से अभिमद जीवाजीव-उवलद्ध पुण्ण - पाव - आसव-बंध-संवर- णिज्जर-मक्खमहिकुसले धम्माणुरागरत्तो, भावाणुरागरत्तो, पैम्माणुरागरत्तो, अट्ठिमज्जाणुरागरत्तो मुच्छिदट्ठे, गिहिदट्ठे, णिग्गंथपवयणे अणुत्तरे से अट्ठे सेवणुट्ठे ।” आचार्य शिवार्य ने इन चारों अनुरागों को जिनशासन का प्रभावना का साधन' बताया है— “भावाणुराग- पॅम्माणुराग - मज्जाणुरागरतो वा । धम्मरागत्तो य होदि जिणसासणे णिच्चं । । ” - ( भगवती आराधना, 736 ) अर्थ:- जिनशासन की प्रभावना करनेवाले व्यक्ति के भावानुराग, प्रेमानुराग, मज्जानुराग एवं धर्मानुराग —यह चार प्रकार का अनुराग नित्य वर्तमान रहता है । आचार्य अमितगति ने इन चारों अनुरागों से युक्त व्यक्ति को 'कुछ भी दुर्लभ नहीं' है, ऐसा कहा हैधर्म-भाव-मज्जादि- प्रेमानुराग- रञ्जिताः । "ये जैने सन्ति मते तेषां न किञ्चिद् वस्तु दुर्लभम् । ।” - ( मरणकण्डिका, 7/770) मनुष्य को परिपूर्ण सामाजिकता प्रदान करनेवाले इन चारों अनुरागों का स्वरूप एवं प्राकृतविद्या + जुलाई-सितम्बर '2000 00 5

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