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21.
देख! निस्सन्देह तू वह ही है जिसको (तू) मारे जाने योग्य मानता है। देख! निस्सन्देह तू वह ही है जिसको (तू) शासित किये जाने योग्य मानता है।
22.
जैसे (जगत में) मेरु पर्वत से ऊँचा (कुछ) नहीं (है) (और) आकाश से विस्तृत (भी) (कुछ) नहीं (है), वैसे ही अहिंसा के समान जगत में (श्रेष्ठ और व्यापक) धर्म नहीं (है); (यह) (तुम) जानो।
23. धर्मात्माओं का जागरण (सक्रिय होना) और अधर्मात्माओं का सोना
(निष्क्रिय होना) सर्वोत्तम (होता है); (ऐसा) वत्स देश के राजा की बहिन जयन्ती को जिन (महावीर) ने कहा था।
24. आलस्य के साथ सुख नहीं (रहता है), निद्रा के साथ विद्या
(सम्भव) नहीं (होती है), आसक्ति के (साथ) वैराग्य (घटित) नहीं (होता है), (तथा) जीव-हिंसा के (साथ) दयालुता नहीं (ठहरती है)।
25. हे मनुष्यो! (तुम सब) निरन्तर जागो (आध्यात्मिक मूल्यों में सजग
रहो) जागते हुए (आध्यात्मिक मूल्यों में सजग) (व्यक्ति) की प्रतिभा बढ़ती है, जो (व्यक्ति) सोता है (आध्यात्मिक मूल्यों को भूला हुआ है) वह सुखी नहीं (होता है), जो सदा जागता है (आध्यात्मिक मूल्यों में सजग है), वह सुखी (होता है)।
26.
अविनीत के (जीवन में) अनर्थ (होता है) और विनीत के (जीवन में) समृद्धि (होती है); जिसके द्वारा यह दोनों प्रकार से जाना हुआ (है), वह (जीवन में) विनय को ग्रहण करता है।
27. अच्छा तो, जिन (इन) पाँच कारणों से शिक्षा प्राप्त नहीं की जाती
है; अहंकार से, क्रोध से, प्रमाद से, रोग से तथा आलस्य से।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ
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