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• टीका पैवस
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प्रसन्न नहीं हुआ। तब किसीने राजा से कहा- देव ! पण्डितों के द्वारा की हुई समस्या-पूर्ति इन दोनों को पसन्द नहीं आई। तब राजने पूछा कि इन दोनों को सन्तुष्ट करने का कोई अन्य उपाय संभव है ? इस पर राजा को उत्तर मिला कि चित्रकूट ('चित्तोड़ ) में जिनवल्लभगणि नाम के श्वेताम्बर साधु हैं जो सब विद्याओं में निपुण माने जाते हैं। तब राजाने साधारण नामके सेठ के पास एक पत्र भेजा, जिसमें उससे अनुरोध किया गया था कि वह अपने गुरु जिनवल्लभगण के द्वारा इस समस्या की पूर्ति करवाकर शीघ्र ही भेजे । प्रतिक्रमण के बाद जब गणिजी को पत्र सुनाया गया तो उन्होंने तत्काल ही इस प्रकार उस समस्या को पूर्ण किया ---
" रे रे नृपाः ! श्रीनरवर्मभूप- प्रसादनाय क्रियतां नताङ्गेः । कण्ठे कुठारः कमठे ठकार चक्रे यदश्वोखुराग्रघातः ॥ १ ॥ "
यह पूर्ति जब राजसभा में पहुंची तो न केवल विदेशी विद्वान ही सन्तुष्ट हुए अपितु स्वयं राजा भी जिनबलभगणि का सदा के लिये भक्त हो गया । यही कारण है कि जब गणिजी कुछ काल उपरान्त धारानगरी पधारे तो राजाने उनको तीन लाख मुद्रा या तीन ग्राम लेने के लिये बहुत कुछ आग्रह किया । परन्तु जब यह आग्रह उस अपरिग्रही और निस्पृह साधुने स्वीकार नहीं किया तो राजाने गणिनी की अनुमति से चित्रकूट में श्रावकों द्वारा निर्मापित दो विधिचैत्यों की पूजा के लिये वह धन दान में दे दिया । इसी बात का उल्लेख उनके गुरुभ्राता जिनशेखराचार्य के प्रशिष्य श्री अभयदेवसूरिने जयन्तविजय नामक काव्य ( र. सं. १२७८ ) में भी किया है:--
" उच्छिष्यो जिनवल्लभो प्रवरभूत् विश्वम्भराभामिनी - भास्वङ्गालललामकोमलय सः स्तोमः समारामभूः ।
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उपोद्घात । आचार्यपद
और
स्वर्गवास ।
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