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उनकी इसी पुस्तक से सीखा था । मैं तो उनके दिव्य चरणों में श्रद्धा से पूर्णतः समर्पित हूँ । वे और उनके ग्रन्थ तो अब भी प्रेरणा के अखंड स्रोत हैं। उनसे भी बहुत कुछ इस ग्रन्थ में लिया है । यह कहने की श्रावश्यकता नहीं है कि ऐसे ही अनेक हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती आदि भाषाओं के विद्वानों के ग्रन्थों से लाभ उठाया गया है और यथास्थान उनका नामोल्लेख भी किया गया है। इन सबके समक्ष मैं श्रद्धापूर्वक विनत हूँ । इन सभी विद्वानों के चरणों में मैं एक विद्यार्थी की भाँति नमन करता हूँ और उनके आशीर्वाद की याचना करता हूँ । उनके ग्रन्थों की सहायता के बिना यह पुस्तक नहीं लिखी जा सकती थी और पांडुलिपि - विज्ञान का बीज वपन नहीं हो सकता था ।
इस पुस्तक की तैयारी में सबसे अधिक सहायता मुझे राजस्थान विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अनुसंधान अधिकारी प्रवक्ता, डॉ० रामप्रकाश कुलश्रेष्ठ से मिली है । उनकी सहायता के बिना यह ग्रन्थ लिखा जा सकता था, इसमें मुझे संदेह है । इसका एकएक पृष्ठ उनका ऋणी है ।
इस पुस्तक का एक छोटा-सा इतिहास है । जब केन्द्रीय हिन्दी - निदेशालय और शब्दावली प्रयोग ने साहित्य और भाषा की विषय- नामिकाएँ बनाई तो उनमें मुझे भी एक सदस्य नामांकित किया गया । इन्हीं विषय-नामिकाओ में जब यह निर्धारित किया गया कि किन-किन ग्रन्थों का मौलिक लेखन कराया जाय, तब "पांडुलिपि - विज्ञान" को भी उसी सूची में सम्मिलित किया गया । इसका लेखन कार्य मुझे सौंपा गया ।
जब मैं राजस्थान विश्वविद्यालय में हिन्दी विभागाध्यक्ष होकर था गया और कुछ वर्ष बाद राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी की स्थापना हुई तो इस अकादमी के 'साहित्यालोचन' और 'भाषा' की विषय-नामिका का एक सदस्य केन्द्र की ओर से मुझे भी बनाया गया । साथ ही उक्त ग्रन्थ भी लिखवाने और प्रकाशन के लिए राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी को दे दिया गया। दिसम्बर 73 तक इस विषय पर विशेष कार्य नहीं हुआ । 74 के आरम्भ से कुछ कार्य प्रारम्भ हुआ । 5 मार्च 74 को ग्रन्थ अकादमी के निदेशक पद से निवृत्त होकर मैं इस ग्रन्थ के लिखने में पूरी तरह प्रवृत्त हो गया । इसी का परिणाम यह ग्रन्थ है ।
इस ग्रन्थ की रचना में राजस्थान विश्वविद्यालय के पुस्तकालयों का पूरा-पूरा उपयोग किया गया है । राजस्थान - हिन्दी-ग्रन्थ- प्रकादमी के पुस्तकालय का भी उपयोग किया गया है ।
पं० कृपाशंकर तिवारी जी के एक लेख को अपनी तरह से इसमें मैंने सम्मिलित कर लिया है | पं० उदयशंकर शास्त्री जी के एक चार्ट को भी ले लिया गया है । इन सबका यथास्थान उल्लेख है ।
जिन विषयों की चर्चा की गयी है, उनके विशेषज्ञों के ग्रन्थों से तद्विषयक वैज्ञानिक प्रक्रिया बताने या विश्लेपण - पद्धति समझाने के लिए आवश्यक सामग्री उद्धृत की गयी है। और यथास्थान उनका विश्लेषण भी किया गया है । इस प्रकार प्रत्येक चरण को प्रामाणिक बनाने का यत्न किया गया है। इन सभी विद्वानों के प्रति मैं नतमस्तक हूँ । यदि ग्रन्थ में कुछ प्रामाणिकता है तो वह उन्हीं के कारण है ।
प्रयत्नों के किये जाने पर भी हो सकता है कि यह भानुमती का कुनबा होकर रह गया हो, पर मुझे लगता है कि इसमें पांडुलिपि-विज्ञान का सूत्र भी अवश्य है ।
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