Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 16
________________ ४ : पदमपरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति ७, माहण शब्द की उत्पत्ति की जो कथा (मा हनन कार्कः - हनन मत करोपदम० ४।१२२) पद्मपरित में मिलती है उससे उसके प्राकृत स्रोत का ही तृमान होता है। संस्था प्राण दही मलित है। ब्राह्मण वान्द से इस प्रकार की व्युत्पत्ति नहीं निकाली जा सकती 1 ८, प्राकृत से संस्कृत किये जाने के अनेक उदाहरण जैन साहित्य में मिलते हैं । संस्कृत से प्राकृत में अनुवाद किये जाने का एक भी उदाहरण नहीं मिलता। इससे यह बात सिद्ध होती है कि रविर्षणाचार्य ने इसे पउमरिय के आधार से जैसा का तैसा रख दिया है, किन्तु पदमचरित में पसमचरिय मा उसके कर्ता का कहीं भी नामोल्लेख न किया जाना उपर्युक्त मत के स्वीकार करने के बीच एक बहुत बड़ी वाघा है। हो सकता है ये दोनों प्रम्य एक दूसरे के छायानुवाद न होकर किसी अन्य पूर्ववर्ती प्राचार्य के छायानुवाद या पल्ल बित अनुवाद हों और उनकी यह रचना आज अनुपलब्ध हो। इस दृष्टि से पदमचरित में जिन अनुत्तरवाग्मी मनिराज का उल्लेख आता है तथा जिनका लिखा रविषेण को प्राप्त हुआ, उन्हीं अनुत्तरवाग्मी मनि प्रणीत अन्य के आधार पर दोनों ने अपनी रचना की हो, यह भी हो सकता है। पदमचरित के आधार पर कवि स्वयम्भू ने अपभ्रंश में पउमचरित की रचना लगभग आठवीं सदी के प्रथम चरण में की। इस रचना का मूल स्रोप्त स्वयम्भ ने भी वही माना, जो कि रविण ने माना था । इतना विशेष है कि कि इन्होंने अपनी रचना रविषण के पद्मचरित के आधार पर की थो, अतः अन्त में रविषेण का नाम भी दे दिया। इससे भी उपर्युक्त मन्तव्य की पुष्टि होती है। दोनों ग्रन्थों के अध्ययन से इतना अन्तर अवश्य जाप्त होता है कि जब रविषेण की कृति पूरी तरह दिगम्बर परम्परा की है सब विमलसूरि को कृति में कुछ बातें दिगम्बर परम्परा के अनुकूल है, कुछ श्वेताम्बर परम्परा के अनुकूल १६. पद्म १।४२ । १७. डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन : पउभचरिउ (हिन्दी अनुवाद प्रस्तावना सहित) । १८. बक्षमाणमुहहर विणिग्गय | रामकहा णइएह कमागम || १ ॥ एस रामकहरि सोहन्ती ! गणहर देवहि दिछ वहन्ती ॥ ६ ॥ पच्छाइ इन्दभूइ आयरिएं । पुणु घम्मेणगुणालंरिए ।। ७ ।। पुणु पहवें संसाराराएं फित्ति हरेण अणुत्तरवाएं ॥ ८॥ पुणु रविसेणायरिय पसाएं। बुद्धिए अथगाहिय फहराएं ।। ९ ॥ -पउमपरिज, पृ० ६१

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