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जीव अधिकार
ज्ञानं तावत् तेषु त्रिषु परद्रव्यनिरवलंबत्वेन निःशेषतोन्तर्मुखयोगशक्तेः सकाशात् निजपरमतत्त्वपरिज्ञानम् उपादेयं भवति ।
दर्शनमपि भगवत्परमात्मसुखाभिलाषिणो जीवस्य शुद्धान्तस्तत्त्वविलासजन्मभूमिस्थाननिजशुद्धजीवास्तिकायसमुपजनितपरमश्रद्धानमेव भवति ।
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चारित्रमपि निश्चयज्ञानदर्शनात्मककारणपरमात्मनि अविचलस्थितिरेव । अस्य तु नियमशब्दस्य निर्वाणकारणस्य विपरीतपरिहारार्थत्वेन सारमिति भणितं भवति । परद्रव्य के अवलम्बन बिना सम्पूर्णतः अन्तर्मुख योग शक्ति से ग्रहण करने योग्य निज परमतत्त्व का परिज्ञान ज्ञान (सम्यग्ज्ञान ) है ।
भगवान आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाले सुख के अभिलाषी जीव को, शुद्ध अन्तस्तत्त्व के विलास की जन्मभूमिरूप जीवास्तिकाय से उत्पन्न होनेवाला परम श्रद्धान ही दर्शन (सम्यग्दर्शन) है।
निश्चयज्ञानदर्शनात्मक कारणपरमात्मा में इस जीव की अविचल स्थिति ही चारित्र (सम्यक्चारित्र) है ।
यह ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप नियम निर्वाण का कारण है। नियम शब्द में जोड़ा गया सार शब्द विपरीतता के परिहार के लिये है ।"
उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि कारणनियम और कार्यनियम के भेद से नियम (रत्नत्रय) दो प्रकार का होता है। त्रिकालस्वभावरत्नत्रय कारणनियम है और सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप प्रगट पर्याय कार्यनियम है।
त्रिकालस्वभावरत्नत्रय को शुद्धज्ञानचेतनापरिणाम भी कहते हैं । इसकारण शुद्धज्ञानचेतनापरिणाम को कारणनियम भी कहते हैं । यह शुद्धज्ञानचेतनापरिणाम उत्पादव्ययनिरपेक्ष एकरूप है, द्रव्यरूप है; अतः द्रव्यार्थिकनय का विषय है । यह स्वयं मोक्षमार्गरूप नहीं है, यह तो त्रिकाली ध्रुव है, इसके आश्रय से मोक्षमार्ग प्रगट होता है।
ध्यान रहे मूल गाथा में तो मात्र कार्यनियम की ही बात है; पर टीका में टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव ने कारणनियम की बात भी उसी में से निकाली है।
यहाँ कारण-कार्यव्यवस्था दो प्रकार से घटित होती है ह्न
१. त्रिकाली ध्रुवशुद्धज्ञान - चेतनापरिणाम कारण है और सम्यग्दर्शन- ज्ञान - चारित्ररूप मोक्षमार्ग कार्य है।
२. सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप मोक्षमार्ग कारण है और मोक्ष कार्य है।
इसप्रकार हम देखते हैं कि शुद्धचेतनाज्ञानपरिणाम तो मात्र कारण ही है; क्योंकि उसके आश्रय से मोक्षमार्ग प्रगट होता है । इसीप्रकार मोक्ष केवल कार्य ही है; किन्तु रत्नत्रयरूप