Book Title: Niyamsara
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 14
________________ नियमसार णियमेण यजं कजं तं णियमंणाणदंसणचरित्तं । विवरीयपरिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणं ।।३।। नियमेन च यत्कार्यं स नियमो ज्ञानदर्शनचारित्रम् । विपरीतपरिहारार्थं भणितं खलु सारमिति वचनम् ।।३।। अत्र नियमशब्दस्य सारत्वप्रतिपादनद्वारेण स्वभावरत्नत्रयस्वरूपमुक्तम् । यःसहजपरमपारिणामिकभावस्थितः स्वभावानन्तचतुष्टयात्मकःशुद्धज्ञानचेतनापरिणाम: स नियमः । नियमेन च निश्चयेन यत्कार्यं प्रयोजनस्वरूपं ज्ञानदर्शनचारित्रम् । जैसे उन सभी महान पण्डितों के प्रति अरुचि और घृणा व्यक्त होती है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भगवान महावीर के इस उत्कृष्ट अध्यात्म को हिन्दी भाषा में उत्तर भारतीय आत्मार्थी विद्वान पण्डितों ने ही जीवित रखा है।।९।। इस ग्रन्थ का नाम नियमसार है। अत: यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि नियम किसे कहते हैं और नियम के साथ जुड़े हुए सार शब्द का क्या प्रयोजन है ? इन्हीं प्रश्नों का उत्तर इस तीसरी गाथा में दिया गया है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्न (हरिगीत ) सद्ज्ञान-दर्शन-चरण ही हैं 'नियम' जानो नियम से। विपरीत का परिहार होता सार इस शुभ वचन से||३|| जो कार्य नियम से करने योग्य हो, उसे नियम कहते हैं। ज्ञान, दर्शन और चारित्र नियम से करने योग्य कार्य हैं; इसलिए वे नियम हैं। विपरीतता के परिहार के लिए यहाँ 'नियम' के साथ 'सार'शब्द जोड़ा गया है। ___ इसप्रकार 'नियमसार' शब्द का अर्थ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र हो जाता है। तात्पर्य यह है कि इस ग्रंथ में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का निरूपण किया गया है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न ___ “यहाँ इस गाथा में नियम शब्द के साथ सार विशेषण क्यों लगाया गया है ह इस बात के प्रतिपादन द्वारा स्वभावरत्नत्रय का स्वरूप कहा गया है। जो सहज परमपारिणामिकभाव में स्थित, स्वभाव-अनन्तचतुष्टयात्मक शुद्धचेतनापरिणाम है, वह नियम अर्थात् कारणनियम हैं। जो प्रयोजनभूत ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप कार्य नियम से करने योग्य है; वह कार्यनियम है। उक्त ज्ञान, दर्शन और चारित्र ह इन तीनों का स्वरूप इसप्रकार है ह्न

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