________________
(१२) विहरि ऊणउ भउकालं श्रावस्स गस्स उवट्ठतितं लोगुत्तरिय दवावस्मयं ।
. अर्थात् साधू के गुणों रहित छओं कायों की दया नहीं करने बाले हय याने घोडे की तरह उन्मह और निरांकुश हाथी वत् श्री वीतराग की आज्ञा को भंग करने वाले खेच्छाचारी तथास्नान करके शरीर को निर्मल रखके स्वच्छवस्त्रादि से शृङ्गार करने वाले केसों को संवार के शरीर की शोभा बढाने वाले कालों काल प्रतिक्रमणादि नहीं करते हैं इत्यादि अनेक अवगुणों सहित दृव्य साधू हैं, प्रियवरो! तब ही तो स्वामी भीषनजी ने हव्य सा. धू भेषधारीयों का संग छोड कर अपने प्रात्मा का उद्धार किया है ओर मुगुरु कुगुरु पहिचानने के निमित्त अनेक ढाले चोपाइयां बनाकर भव्यजीवों को समझाने के लिए उपदेश दिया है सो निर्गुणी भेष धारियों को अत्यन्त अप्रिय लगे हैं तब वो अनेक तरह से उनकी निन्दा करके लोगों को वहकाते हैं कहते हैं भीखनजोन तो भगवान को तो चूक गुरुको रोये वताये हैं और दया में पाप बताते हैं तथा दान धर्म को तो उठा ही दिया है इत्यादि मन माना कथना कथके भोले' लोकों को श्री वीतराग प्ररूपित . धर्म मार्ग से विमुख कररहे हैं लेकिन न्यायाधयां तो हरगिज भी नहीं मानते,मोक्षाभिलाषी तो समझते हैं निन्दकों का कर्तव्य तो निन्दा करना ही है, निन्दकों की निन्दा से गुणी के गुण कभी भी लुप्त नहीं होते हैं, इसी लिएं निन्दक जी चाहेसो निन्दा कगे परन्तु गुणी पुरुष तो गुणी ही रहेंगे, और निन्दा करने वाले निदंक ही रहेंगे, यह किसी को अप्रिय लगे तो क्षमाता हूं परन्तु न्याय बाते तो निःशंक से ही कहना उचित है स्वामीने तो स्व. कृत ढालों में किसी का भी नाम ले के अपशब्द नहीं कहा है परन्तु होणाचारी व्यंलिङ्गयों ने अनेकानेक पुस्तके छपाके स्वामी की निन्दा ऐसे ऐसे शब्दो में किइ है कि जैसे कोई मदिरा के न-. शे में चूर होके नेक आदमी को गाली गलोज देते हैं, किन्तु भले आदमी को तो हलका शब्द भी मुखसे उच्चारण करते शरम