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नन्दी सूत्र
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सद्धर्मोपदेश के द्वारा इहलौकिक, पारलौकिक और अलौकिक मोक्ष आनंद को देने वाले' हैं। ऐसे हे भगवन्! आप 'जयवंत' है-इन्द्रिय, विषय, कषाय, परीषह, उपसर्ग, घातिकर्म आदि सभी शत्रुओं को जीतने के कारण सबसे बढ़कर हैं।
४. आप 'जगन्नाथ' हैं-छहों द्रव्यों की यथार्थ प्ररूपणा द्वारा, अयथार्थ प्ररूपणा से उनकी 'रक्षा करने वाले हैं।
५. आप 'जगबन्धु' हैं-सभी संसारी प्राणियों की, अहिंसा के उपदेश द्वारा रक्षा करने वाले 'स्वजन' हैं।
६. आप 'जगत्पितामह' हैं-सभी भव्य जीवों को दुर्गति से बचाने वाला जो पिता के समान धर्म है, उस धर्म को आप प्रकट करने वाले हैं, अतः आप जगत् के पितामह-पिता (धर्म) के पिता-दादा हैं।
७. आप 'भगवान्' हैं-सर्वश्रेष्ठ १. ऐश्वर्यवान् २. रूपवान् ३. यशवान् ४. श्रीमान् ५. धर्मवान् और ६. प्रयत्नदान हैं।
ऐसे हे भगवन! आप 'जयवंत' हैं-सब से बढकर हैं।
(जो सबसे बढ़कर होता है, वह बुद्धिमानों के लिए अवश्य प्रणाम करने योग्य होता है। तात्पर्य यह है कि इस कारण मैं भी आपको प्रणाम करता हूँ।)
स्तुति आदि के प्रसंग में किसी शब्द के बार-बार प्रयोग को निर्दोष माना गया है। अतः यहाँ और आगे 'जयइ' आदि के बार-बार प्रयोग को निर्दोष समझना चाहिए। बार-बार प्रयोग से स्तुति में भक्ति रस का उत्कर्ष होता है, उससे विशिष्ट निर्जरा तथा पुण्य बंध होता है।
महावीर स्तुति अब आचार्य श्री निकट उपकारी भगवान् महावीर की विशिष्ट स्तुति करते हैं, क्योंकि निकट उपकारी का उपकार प्रत्यक्ष तथा तीव्र होता है।
जयइ सुयाणं पभवो, तित्थयराणं अपच्छिमो जयइ। जयइ गुरू लोगाणं, जयइ महप्या महावीरो॥२॥
१. हे महावीर! आप 'भ्रतों के प्रभव' हैं - जितने भी आचारांग आदि सूंत्र रूप आगम हैं उनके मूल आप ही हैं, क्योंकि आपके अर्थ रूप आगम के आधार पर ही गणधर और पूर्वधरों ने उनकी रचना की है। ऐसे हे भगवन्! आप जयवन्त हैं।
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