Book Title: Nandanvan Kalpataru 2001 00 SrNo 05
Author(s): Kirtitrai
Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti
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पलाशपुष्पाणि
मुनिभुवनचन्द्रः ‘चिन्मयः'
कोल्यानिकुआम
ईषत्समीरचलितानि पुनः स्थिराणि रक्तानि किंशुकसुमानि वनेषु भान्ति । अर्चीषि किं निभूतदीपितहोलिकाग्नेः ? किं वा वसन्ततिलकानि धराकुमार्याः ? ॥१ आरक्तभुग्नविकचप्रकटाग्रभाञ्जि किं किंशुकद्रुमसुमानि नवोत्पलानि ? । किं वा वसन्ततिलकोपमधूलिपर्वमोदार्थिमन्मथशुकस्य नु नैकचञ्च्वः ? ॥२ सन्त्यज्य सर्वसुषमां मुनिवत्पलाशा उग्रं सुवार्षिकतपो हटवीषु तप्ताः । तस्मात् प्रसूनमिषतस्त्वयकाडरुणानि मन्ये वसन्त! तिलकानि कृतानि तेषाम् ॥३ नूनं पलाशकुसुमप्रचयो वसन्ते पृथ्व्याः सुभालतलमण्डनतां बिभर्ति । दृष्ट्वैव तत् प्रमुदितैः कविभिः पुरा किं छन्दो वसन्ततिलकाभिधया व्यधायि ? ॥४
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