Book Title: Naishadhiya Charitam 02
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 13
________________ द्वितीयसर्गः श्रियमेव परं धराधिपाद गुणसिन्धोरुदितामवेहि ताम् / व्यवधावपि वा विधोः कलां मृडचूडानिलयां न वेद कः // 19 // अन्धयः-(हे राजन् ! ) ताम् श्रियम् एव परं गुष्प-सिन्धोः धराधिपात् उदिताम् अवेहि, वा म्यवधौ अपि मृड-चूडा निलयाम् विधोः कलाम् कः न वेद ? टीका-(हे राजन् ! ) ताम् दमयन्तीम् श्रियम् लक्ष्मीम् पत्र, परं किन्तु गुणानां दयादाक्षिण्या: दीनां शो वीर्यादीनां वा सिन्धोः समुद्रात् (10 तत्पु० ) धरायाः भुवः अधिपात् (प० तत्पु०) भूपते. मीमात् उदिताम् उत्पन्नाम् अवेहि जानीहि / लक्ष्मीः समुद्र त् उदिता, इयं तु गुण-समुद्रात धराधिपाद इति विशेषः / वा प्रसिद्धी व्यवधी व्यवधान अपि मृडस्य महादेवस्य या चूडा मौलिः (10 तत्पु०) तस्यां निलय प्रावासः ( स० तत्पु० ) यस्याः तथाभूताम् ( ब० वी०) विधोः चन्द्रमसः कला षोडशं मागम् ('कला तु षोडशो भागः' इत्यमरः ) को न वेद जानाति, अपि तु सर्व एव वेदेति काकुः / महादेवस्य व्यवधौ प्रत्यक्षामावेऽपीति यावत् यथा चन्द्रकला सर्वोऽपि जनः वेत्ति, तथैव दमयन्त्या: प्रत्यक्षामावेऽपि सवें तां विदन्तीति भावः // 19 // __ व्याकरण-अधिपात् अधिकं पाति ( रक्षति ) इति अधिक+/पा+कः ) / अवेहि-अव+ Vs+लोट् मध्य० पु० / व्यवधिः-वि+व+Vधा+कि। वेद/विद्+लट् ('वेत्ति' का वैकल्पिक रूप ) / अनुवाद-(हे राजन् ! ) उस (दमयन्ती) को तुम लक्ष्मी हो समझो, पर वह गुणों के समुद्र रूप भूपति से उत्पन्न हुई है ( जब कि लक्ष्मी समुद्र से उत्पन्न हुई थी ) / व्यवधान पड़े रहने पर मी महादेव के सिरपर निवास करने वाली चन्द्र-कला को कौन नहीं जानता ? // 19 // टिप्पखी--यहाँ धराधिप पर गुण सिन्धुत्व का और दमयन्ती पर श्रीत्व का आरोप होने से रूपकालङ्कार है, उसको पूर्वोत्तर वाक्यों में परस्पर बिम्ब-प्रतिबिम्बमाव होने से बने दृष्टान्त के साथ संसृष्टि है / शब्दालंकारों में 'वधा' 'विधो' में छेक तथा अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। चिकुरप्रकरा जयन्ति ते विदुषी मूर्धनि स बिभर्ति यान् / पशुनाप्यपुरस्कृतेन तत्तुलनामिच्छतु चामरेण कः // 20 // अन्वयः-ते चिकुर-प्रकराः जयन्ति, यान् सा विदुषो मूर्धनि बिमति। पशुना अपि अपुरस्कृतेन चामरेण तत्तुलनाम् कः इच्छतु। टोका-ते चिकुराणां केशानन प्रकराः सम्हाः ( 10 तत्पु. ) जयन्ति सर्वोत्कर्षेण वर्तन्ते यान् सा विदुषो पण्डिता भैमी मूर्धनि शिरसि बिभर्ति धत्ते / विदुषां सन्निधौ सवोऽप्युत्कर्ष लमते इति भावः। पशुना चमराभिधेयेन मृगविशेषेणापि अपुरस्कृतेन अग्रे न कृतेन पश्चारकतेने त्यर्थः चामरेण चमरपुच्छेन तेषां दमयन्ती-चिकुराणां तुलनां साम्यम् ( 10 तत्पु० ) क इच्छतु अभिलपतु ? न कोऽपीति काकुः / तुच्छ-पशुरपि यस्मै चामराय महत्त्वं न ददाति पश्चात् स्थानं च ददाति तेन सह मूर्धस्थितचिकुराणां तुलना किल मूर्खतेवेति भावः / एतेन दमयन्ती-केशानां सर्वोत्कृष्टत्वम् // 20 // ___व्याकरण-विदुषी-वेत्तीति /विद् + शत, वसुरादेश+ङोप , व को सम्प्रसारण / तुलानाम-Vतुल्+युच् ( अन् )+टाप् /

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