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प्रगट ह
नाना प्रकार की विपत्तियों को वे हँसते-हँसते सहन करती हैं। निर्धनता उन्हें डरा नहीं सकती, रोगशोकादि से वे विचलित नहीं होतीं परन्तु पतिवियोगसदृश दारुण दुःख का वे प्रतिकार नहीं कर सकती हैं। यह दुःख उन्हें असह्य हो जाता है। ऐसी दुःखपूर्ण स्थिति के कारण उन्हें 'अबला' भी पुकारा जाता है। परन्तु सुमित्राजी में आत्मबल
उनके अन्तरंग में स्फरणा हई कि इस जीत का शक मात्र सहायक या अवासन धर्म ही है! 'धर्मों रक्षति रक्षितः' । अपने विवेक से उन्होंने सारी स्थिति का विश्लेषण किया और 'शिक्षार्जन' कर स्वावलम्बी (अपने पाँवों पर खड़े) होने का संकल्प लिया। भाइयों श्री नीरजजी और श्री निर्मलजी, सतना के सहयोग से केवल दो माह पढ़ कर प्राइमरी की परीक्षा उत्तीर्ण की। मिडिल का त्रिवर्षीय पाठ्यक्रम दो वर्ष में पूरा किया और शिक्षकीय प्रशिक्षण प्राप्त कर अध्यापन की अर्हता अर्जित की और अनन्तर सागर के उसी महिलाश्रम में जिसमें उनकी शिक्षा का श्रीगणेश हुआ था- अध्यापिका बनकर सुमित्राजी ने स्व+अवलम्बन के अपने संकल्प का एक चरण पूर्ण किया।
सुमित्राजी ने महिलाश्रम (विधवाश्रम) का सुचारु रीत्या संचालन करते हुए करीब बारह वर्ष पर्यन्त प्रधानाध्यापिका का गुरुतर उत्तरदायित्व भी संभाला। आपके सद्प्रयत्नों से आश्रम में श्री पार्श्वनाथ चैत्यालय की स्थापना हुई। भाषा और व्याकरण का विशेष अध्ययन कर आपने भी 'साहित्यरत्न' और 'विद्यालंकार' की उपाधियाँ अर्जित की। विद्वशिरोमणि डॉ. पन्नालालजी साहित्याचार्य का विनीत शिष्यत्व स्वीकार कर आपने 'जैन सिद्धान्त' में प्रवेश किया और धर्मविषय में 'शास्त्री' की परीक्षा उत्तीर्ण की। अध्यापन और शिक्षार्जन की इस संलग्नता ने सुमित्राजी के जीवनविकास के नये क्षितिजों का उद्घाटन किया। शनैः शनैः उनमें 'ज्ञान का फल' अंकुरित होने लगा। एक सुखद संयोग ही समझिये कि सन् १९६२ में परमपूज्य परमश्रद्धेय (स्व.) आचार्य श्री धर्मसागरजी महाराज का वर्षायोग सागर में स्थापित हुआ। आपकी परम निरपेक्षवृत्ति और शान्त सौम्य स्वभाव से सुमित्राजी अभिभूत हुईं। संघस्थ प्रवर वक्ता पूज्य १०८ (स्व.) श्री सन्मतिसागरजी महाराज के मार्मिक उद्बोधनों से आपको असीम बल मिला और आपने स्व+ अवलम्बन के अपने संकल्प के अगले चरण की पूर्ति के रूपमें चारित्र का मार्ग अंगीकार कर सप्तम प्रतिमा के व्रत ग्रहण किये।
विक्रम संवत् २०२१, श्रावण शुक्ला सप्तमी, दि. १४ अगस्त, १९६४ के दिन परम पूज्य तपस्वी, अध्यात्मवेत्ता, चारित्रशिरोमणि, दिगम्बराचार्य १०८ श्री शिवसागरजी महाराज के पुनीत कर-कमलों से ब्रह्मचारिणी सुमित्राजी की आर्यिका दीक्षा अतिशय क्षेत्र पपौराजी (म.प्र.) में सम्पन्न हुई। अब से सुमित्राजी 'विशुद्धमत्ती' बनीं। बुन्देलखण्ड में यह दीक्षा काफी वर्षों के अन्तराल से हुई थी अतः महती धर्मप्रभावना का कारण बनी।
आचार्यश्री के संघ में ध्यान और अध्ययन की विशिष्ट परम्पराओं के अनुरूप नवदीक्षित आर्यिकाश्री के नियमित शास्त्राध्ययन का श्रीगणेश हुआ। संघस्थ परम पूज्य आचार्यकल्प श्रुतसागरजी महाराज ने द्रव्यानुयोग
और करणानुयोग के ग्रंथों में आर्यिकाश्री का प्रवेश कराया। अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी पूज्य अजितसागरजी महाराज (बाद में पट्टाधीश आचार्य) ने न्याय, साहित्य, धर्म और व्याकरण के ग्रन्थों का अध्ययन कराया । जैन गणित के अभ्यास में और षटखण्डागम सिद्धान्त के स्वाध्याय में (स्व.) ब्र. पं. रतनचन्द्रजी मख्तार आपके सहायक