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कथाकोष प्रकरण सबसे पहले इस श्रेणिका जो मूल्यवान् मणि प्रकट किया गया है वह है महान् ग्रन्थकार हरिभद्रसूरिका प्राकृत 'धूर्ताख्यान' ग्रन्थ । यह ग्रन्थ समुच्चय भारतीय साहित्यमें अपने ढंगकी मौलिक ग्रन्थ पद्धतिका एक उत्तम उदाहरणभूत है । हमारे प्रियतर सुहृद्वर डॉ० ए० एन० उपाध्येने इस ग्रन्थका इंग्रेजीमें बहुत अध्ययनपूर्ण जो सुविस्तृत तुलनात्मक समवलोकन लिखा है, वह विद्वानोंके लिये एक विशेष अध्ययनकी चीज है । ___ उसके बाद दिगंबराचार्य हरिषेणकृत 'बृहत्कथाकोष' नामका (संस्कृत पद्यबद्ध) बडा ग्रन्थ इन्हीं विद्वद्वर डॉ० ए० एन० उपाध्ये द्वारा उत्तम प्रकारसे सम्पादित हो कर प्रकाशित हुआ है, जिसके अवलोकनसे दिगम्बर सम्प्रदायके आचार्योंकी कथाग्रन्थन शैली कैसी थी इसका अच्छा परिज्ञान होता है । इसी श्रेणीका तीसरा, प्रस्तुत ग्रन्थ है- जिसका विस्तृत परिचय हमने आगेके पृष्ठोंमें आलेखित किया है । इसी के साथ इसी श्रेणिका एक ४ था ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है जो प्रस्तुत ग्रन्थसे प्रायः २०० वर्ष पूर्वकी रचना है । यह है जयसिंह सूरिरचित धर्मोपदेशमाला । प्राकृत भाषामें बहुत ही संक्षेपमें सैंकडों प्राचीन जैन कथाएँ इस ग्रन्थमें ग्रथित की गई हैं । प्राकृत साहित्यके मर्मज्ञ पंडित श्रीलालचंदजी गांधीने इसका सम्पादन किया है। ऐसा ही ५ वां ग्रन्थ भी जो इन्हीं ग्रन्थोंके साथ विद्वानोंको उपलब्ध हो रहा है वह है महेश्वरसूरिकृत 'ज्ञानपंचमीकथा' । प्राकृत भाषा और सुंदर उपदेशकी दृष्टिसे यह ग्रन्थ एक रत्नतुल्य रम्य कृति है। भारतीय विद्याभवनके प्राकृत वाङ्मयके प्राध्यापक डॉ. अमृतलाल स० गोपाणीने इसका संपादन किया है । ऐसी ही एक अन्य विशिष्ट कथाकृति जो परिमाणमें छोटी हो कर भी, साहित्यिक महत्त्वकी दृष्टिसे अधिक उपयोगितावाली है - प्रकट हो चुकी है, वह है दिव्यदृष्टि (प्रज्ञानयन ?) कवि धाहिल रचित अपभ्रंशभाषामय पउमसिरिचरिउ । प्राध्यापक हरिवल्लभ भायाणी और विद्वान् अभ्यासक मधुसूदन मोदी- जो गुजरातके अपभ्रंशभाषाके मर्मज्ञ एवं विशिष्ट पण्डित हैं-इसके संयुक्त सम्पादक हैं। इसी तरहकी 'नर्मदा सुंदरी' और 'जिनदत्ताख्यान' 'जंबुचरियं' नामक मनोरम प्राकृत कथाकृतियाँ भी मुद्रित हो चुकी हैं और शीघ्र ही प्रकट हो कर इस श्रेणिकी मणिमालामें अपना स्थान प्राप्त करनेवाली हैं। इस मालाकी श्रेणिमें जो ४ था मणि गुम्फित हुआ है वह उदयप्रभसूरिकृत 'धर्माभ्युदय' अथवा 'संघपतिचरित' नामक संस्कृत महाकाव्य ग्रन्थ है । इस ग्रन्थमें वे जैन कथानक प्रथित किये हुए हैं जिनके श्रवणसे प्रबुद्ध हो कर गूर्जर महामात्य वस्तुपाल जैसे वीरशिरोमणि एवं विद्याविनोदी नरपुङ्गवने तीर्थयात्रा निमित्त अभूतपूर्व संघ निकाले थे तथा शत्रुजय, गिरनार, आबू आदि तीर्थों पर भव्य जिनालय निर्मित करवाये थे। विद्वद्वर मुनिवर्थ श्रीपुण्यविजयजी तथा इनके स्व. ज्ञानोद्धारक परमगुरु श्रीचतुरविजयजी महाराजके संयुक्त संपादनरूप यह उत्तम ग्रन्थरत्न प्रकट हो रहा है।
जैन कथासाहित्यका सार्वजनीन महत्त्व जैन कथा साहित्य, लोकजीवनको उन्नत और चारित्रशील बनानेवाली नैतिक शिक्षाकी प्रेरणाका एक उत्कृष्ट वाङ्मय है। जैन कथाकारोंका एक मात्र लक्ष्य, जनतामें दान, शील, तप और सद्भाव स्वरूप सार्वधर्मका विकास और प्रसार करनेका रहा है । जिस व्यक्तिमें जितने अंशमें इन दान, शील, तप और सद्भावनारूप चतुर्विध धार्मिक गुणोंका विकास होता है वह व्यक्ति
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