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प्रास्ताविक व क्त व्य
जिनेश्वरसूरि विरचित 'प्रा म लक्षण' ग्रन्थ के विषय में एक छोटासा लेख मैंने सन् १९१७ के सितम्बर मास में ( जब मैं बम्बई में चातुर्मास के समय रहा था ) लिखा था; जो, मेरे विद्वान् सुहृद्वर पं० श्री नाथूरामजी प्रेमी द्वारा संपादित 'जै न हि तैषी' पत्रमें ( भाग १३. अङ्क ९–१०) प्रकाशित हुआ था । उस छोटेसे लेखमें मैंने जिनेश्वर सूरिके व्यक्तित्व और कार्यकलापके विषयमें तथा उनके रचे हुए 'प्रमालक्षण' ग्रन्थ के परिचयके रूपमें कुछ विचार प्रकट किये थे । लेकिन उसकी कुछ विशेष स्मृति नहीं रही थी । प्रस्तुत कथाकोष नामक मूल ग्रन्थका मुद्रण कार्य जब समाप्त हुआ और इसका कुछ प्रास्ताविक वक्तव्य लिखनेका प्रसंग आया तो, उस लेखकी स्मृति हो आई । परंतु जैन हितैषीका वह अङ्क मेरे पास नहीं मिला । इसलिये श्रीयुत प्रेमीजीके पास से उसको प्राप्त करके ध्यानपूर्वक पढा तो मुझे लगा कि प्रास्ताविक रूपमें यह लेख ही दे दिया जाय तो ठीक है, क्यों कि इस छोटेसे लेख में ३० वर्ष पहले मैंने जो विचार प्रकट किये हैं उनमें आज भी कोई किसी प्रकारकी भ्रान्ति या अशुद्धि दृष्टिगोचर नहीं हो रही है और ना ही ऐसी कोई मौलिक अभिवृद्धि करने जैसी विशेष बात ही ज्ञात हुई है, जिससे इस विषय में कुछ विशेष संशोधन या परिवर्तन करने जैसा कोई विचार स्फुरित हो । परंतु 'प्रास्ताविक वक्तव्य' के रूप में प्रस्तुत ग्रन्थकी प्रतियों वगैरहका कुछ प्रासंगिक परिचय देना तो आवश्यक था ही, और कुछ प्रन्थके स्वरूपके विषय में भी लिखना प्राप्त था; अतः इस दृष्टिसे जब कुछ लिखना प्रारम्भ किया और साथमें उस पुराने लेखके विचारोंका मननपूर्वक सिंहावलोकन किया, तो जिनेश्वर सूरि समयकी जैन समाज की परिस्थितिका एक विशद चित्र आँखोंके सामने उठने लगा । उनके समयका और उनके बादके २००-३०० वर्षोंका जैन इतिहासका सिंहावलोकन करने पर, वह चित्र और भी अधिक रूपमें प्रस्फुटित होने लगा और उसमें जिनेश्वर सूरिकी शिष्यसंतति के विशिष्ट कार्य-कलापका भी विविध प्रकारका रेखांकण दृष्टिगोचर होने लगा । अतः उस चित्र के समग्र आभासको फिरसे शब्दबद्ध करनेकी कुछ इच्छा हो आई और उस दृष्टिसे थोडा बहुत नया 'प्रास्ताविक कथन' लिखनेका उपक्रम किया । १५-२० पृष्ठों में सब कुछ वक्तव्य समाप्त करनेकी कल्पना थी । 'कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वरसूरि' शीर्षकके साथ आगेके १२४ पृष्ठोंमें जो प्रकरण लिखे गये हैं उनमें के पहले '१. प्रस्तुत कथाकोप प्रकरणका प्रकाशन' और '२. जिनेश्वरसूरिका समय और तत्कालीन परिस्थिति' ये दो प्रकरण लिख लेनेके बाद, जब तीसरा प्रकरण '३. जिनेश्वरसूरिके जीवनचरितका साहित्य' नामक लिखनेका उपक्रम किया तो उसके लिये कुछ ऐसे ग्रन्थोंके अवतरण देखनेकी आवश्यकता उत्पन्न हुई जो पासमें नहीं थे । अतः उनको प्राप्त करनेके लिये मैं १९४६ के जूनजुलाई में पूना गया और वहाँ भाण्डारकर ओरिएण्टल रीसर्च इन्स्टीट्यूट में संरक्षित राजकीय ग्रन्थसंग्रहके ग्रंथोंमेंसे अपेक्षित उद्धरण मैंने एकत्र किये । फिर वहीं कुछ दिन रह कर, वह प्रकरण और उसके बादके ‘४. जिनेश्वरसूरि के चरितकी साहित्यिक सामग्री'; ५. जिनेश्वरसू रिकी पूर्वावस्थाका परिचय' और '६. जिनेश्वरसूरिके चरितका सार' ये तीन प्रकरण और लिख डाले और उनको प्रेस में छपनेके लिये भेज दिये । उसके आगेके ७ वें प्रकरण में प्रस्तुत कथाकोष ग्रन्थका कुछ थोडासा परिचय लिख कर उक्त प्रास्ताविक वक्तव्यको समाप्त करनेका विचार किया था; लेकिन
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