________________
सिंघी जैन ग्रन्थ मा ला।
६११
लगभग तीन साढे तीन लाख रुपये खर्च खाते लिख डाले थे। बंगालके निवासियोंमें और जमींदारोंमें इतना बड़ा उदार आर्थिक भोग उस निमित्तसे अन्य किसीने दिया हो वैसा प्रकाशमें नहीं आया। ___ अक्टूबर-नवम्बर मासमें उनकी तबियत बिगड़नी शुरु हुई और वह धीरे धीरे अधिकाधिक शिथिल होती गई। जनवरी, १९४४ के प्रारम्भमें, में उनसे मिलनेके लिये फिर कलकत्ता गया। ता. ६ जनवरीकी संध्याको उनके साथ बैठ कर ३ घण्टे पर्यंत ग्रन्थमाला, लाईब्रेरी, जैन इतिहासालेखन आदिके सम्बन्धमें खूब उत्साह पूर्वक बातचीत हुई। परन्तु उनको मानों अपने जीवनकी अल्पताका आभास हो रहा हो उस प्रकारसे, वे बीच बीचमें वैसे उद्गार भी निकालते जाते थे। ५-७ दिन रह करके मैं बंबई आनेके लिये निकला तब वे बहुत ही भावप्रवणतापूर्वक मुझे विदाई देते समय बोले कि “कौन जाने अब फिर अपने मिलेंगे या नहीं?" मैं उनके इन दुःखद वाक्योंको बहुत ही दबे हुए हृदयसे सुनता और उद्वेग धारण करता हुआ उनसे सदाके लिये अलग हुआ। उसके बाद उनका साक्षात्कार होनेका प्रसङ्ग ही नहीं आया । ५-६ महीने तक उनकी तबियत अच्छी-बुरी चलती रही और अंतमें जुलाईकी (सन् १९४४) ७ वी तारीखको वे अपना विनश्वर शरीर छोड़ कर परलोकमें चले गये । मेरी साहित्योपासनाका महान् सहायक, मेरी क्षुद्र सेवाका महान् पोषक और मेरी कर्तव्यनिष्ठाका महान् प्रेरक सहृदय सुपुरुष, इस असार संसारमें मुझे शून्य हृदय बना करके स्वयं महाशून्यमें विलीन हो गया। ___ यद्यपि सिंधीजीका इस प्रकार नाशवान् स्थूल शरीर इस संसारमेंसे विलुप्त हो गया है परन्तु उनके द्वारा स्थापित इस ग्रन्थमालाके द्वारा उनका यशःशरीर, सैंकडों वर्षों तक, इस संसार में विद्यमान रह करके उनकी कीर्ति और स्मृतिकी प्रशस्तिका प्रभावदर्शक परिचय भावी जनताको सतत देता रहेगा।
सिंघीजीके सुपुत्रोंका सत्कार्य सिंधीजीके स्वर्गवाससे जैन साहित्य और जैन संस्कृति के महान् पोषक नररत्नकी जो बड़ी कमी
है उसकी तो सहज भावसे पूर्ति नहीं हो सकती है। परन्तु मुझे यह देख कर हृदयमें उच्च आशा और आश्वासक आह्लाद होता है कि उनके सुपुत्र श्री राजेन्द्र सिंहजी, श्री नरेन्द्र सिंहजी और श्री वीरेन्द्र सिंहजी अपने पिताके सुयोग्य संतान हैं। अतएव वे अपने पिताकी प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि के कार्यमें अनुरूप भाग ले रहे हैं और पिताकी भावना और प्रवृत्तिका उदारभावसे पोषण कर रहे हैं।
सिंधीजीके स्वर्गवासके बाद इन बंधुओंने अपने पिताके दान-पुण्यनिमित्त अजीमगंज इत्यादि स्थानों में लगभग ५०-६० हजार रुपये खर्च किये थे। उसके बाद थोडे ही समयमें सिंघीजीकी वृद्धा माताका भी स्वर्गवास हो गया और इसलिये अपनी इस परम पूजनीया दादीमाके पुण्यनिमित्त भी इन बन्धुओंने ७०-७५ हजार रुपयोंका व्यय किया। 'सिंघी जैन ग्रन्थमाला' का पूरा भार तो इन सिंघी बन्धुओंने पिताजीद्वारा निर्धारित विचारानुसार, पूर्ण उत्साहसे अपने सिर ले ही लिया है और इसके अतिरिक्त कलकत्ताके इण्डियन रीसर्च इन्स्टीट्यटको बंगालीमें जैन साहित्य प्रकाशित करवानेकी दृष्टिसे सिंघीजीके स्मारकरूपमें ५००० रुपयोंकी प्रारम्भिक मदद दी।
सिंघीजीके ज्येष्ठ चिरंजीव बाबु श्री राजेन्द्र सिंहजीने मेरी कामना और प्रेरणाके प्रेमसे वशीभूत होकर अपने पुण्यश्लोक पिताकी अज्ञात इच्छाको पूर्ण करनेके लिए, ५० हजार रुपयोंकी स्पृहणीय रकम भारतीय विद्याभवनको दान स्वरूप दी और उसके द्वारा कलकत्ताकी उक्त नाहर लाईब्रेरी खरीद करके भवनको एक अमूल्य साहित्यिक निधिके रूपमें भेट की है। भवनकी यह भव्य निधि 'बाबू श्री बाहादर सिंहजी सिंघी लाईब्रेरी' के नामसे सदा प्रसिद्ध रहेगी और सिंघीजीके पुण्यस्मरण की एक बड़ी ज्ञानप्रपा बनेगी। बाबू श्री नरेन्द्र सिंहजीने, अपने पिताने बंगालकी सराक जातिके सामाजिक एवं धार्मिक उत्थानके निमित्त जो प्रवृत्ति चाल की थी, उसको अपना लिया है और उसके संचालनका भार प्रमुख रूपसे स्वयं ले लिया है। (सन् १९४४) के नवंबर मासमें, कलकत्तामें दिगम्बर समाजकी ओरसे किये गये 'वीरशासन जयंती महोत्सव' के प्रसङ्ग पर उस कार्य के लिये इन्होंने ५००० रुपये दिये थे तथा कलकत्तामें जैन श्रेताम्बर समुदायकी ओरसे बांधे जाने वाले "जैन भवन" के लिये ३१००० रुपये दान करके अपनी उदारताकी शुभ शुरुवात की है। भविष्यमें 'सिंघी जैन ग्रन्थमाला' का सर्व आर्थिक भार इन दोनों बन्धुभोंने उत्साहपूर्वक स्वीकार कर लेनेकी अपनी प्रशंसनीय मनोभावना प्रकट करके, अपने स्वर्गीय पिताके इस परम पुनीत यशोमंदिरको उत्तरोत्तर उन्नत स्वरूप देनेका शुभ संकल्प किया है । तथास्तु । सिंघी जैन शास्त्रशिक्षापीठ
-जि न वि ज य मुनि भारतीय क्यिा भवन, बंबई. ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org