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६१० स्व. बाबू श्री बहादुर सिंहजी सिंघी- स्मरणांजलि । भारम्भसे ही अंतरङ्ग हितचिंतक और सक्रिय सहायक रहे हैं, उनके साथ भी इस योजनाके सम्बन्धमें मैंने उचित परामर्श किया और संवत् २००५ के वैशाख शुक्ल (मई सन् १९४३) में सिंधीजी कार्यप्रसङ्गसे बंबई आये तब, परस्पर निर्णीत विचार-विनिमय करके, इस ग्रन्थमालाकी प्रकाशनसम्बन्धिनी सर्व व्यवस्था भवनके अधीन की गई। सिंघीजीने इसके अतिरिक्त उस अवसर पर, मेरी प्रेरणासे भवनको दूसरे और १० हजार रुपयोंकी उदार रकम भी दी, जिसके द्वारा भवनमें उनके नामका एक 'हॉल' बांधा जाय और उसमें प्राचीन वस्तुओं तथा चित्र आदिका संग्रह रखा जाय ।
भवनकी प्रबंधक समितिने सिंधीजीके इस विशिष्ट और उदार दानके प्रतिघोषरूपमें भवनमें प्रचलित 'जैनशास्त्र-शिक्षणविभाग'को स्थायी रूपसे "सिंघी जैनशास्त्र शिक्षापीठ' के नामसे प्रचलित रखनेका सविशेष निर्णय किया ।
ग्रन्थमालाके जनक और परिपालक सिंघीजी, प्रारम्भसे ही इसकी सर्व प्रकारकी व्यवस्थाका भार मेरे ऊपर छोड कर, वे तो केवल खास इतनी ही आकांक्षा रखते थे कि ग्रन्थमालामें किस तरह अधिकाधिक ग्रन्थ प्रकाशित हों और कैसे उनका अधिक प्रसार हो। इस सम्बन्धमें जितना खर्च हो उतना वे बहुत ही उत्साहसे करनेके लिये उत्सुक थे। भवनको ग्रन्थमाला समर्पण करते समय उन्होंने मुझसे कहा कि"अब तक तो वर्षमें लगभग २-३ ही ग्रन्थ प्रकट होते रहे हैं परन्तु यदि आप प्रकाशित कर सकें तो प्रतिमास दो दो ग्रन्थ प्रकाशित होते देख कर भी मैं तो अतृप्त ही रहँगा। जब तक आपका और मेरा जीवन है तब तक, जितना साहित्य प्रकट करने-करानेकी आपकी इच्छा हो तदनुसार आप व्यवस्था करें। मेरी ओरसे आपको पैसेका थोडासा भी संकोच प्रतीत नहीं होगा।" जैन साहित्यके उद्धारके लिये ऐसी उस्कट आकांक्षा और ऐसी उदार चित्तवृत्ति रखने वाला दानी और विनम्र पुरुष, मैंने मेरे जीवन में दूसरा और कोई नहीं देखा । अपनी उपस्थिति में ही उन्होंने मेरे द्वारा ग्रन्थमालाके खाते लगभग ७५००० (पोने लाख) रुपये खर्च किये होंगे। परन्तु उन १५ वर्षों के बीच में एक बार भी उन्होंने मुझसे यह नहीं पूछा कि कितनी रकम किस ग्रन्थके लिये खर्च की गई है या किस ग्रन्थके सम्पादनके लिये किसको क्या दिया गया है ? जब जब मैं प्रेस इत्यादिके बिल उनके पास भेजता तब तब, वे तो केवल उनको देख कर ही ऑफिसमें वह रकम चुकानेकी रिमार्कके साथ भेज देते। मैं उनसे कभी किसी बिलके बारेमें बातचीत करना चाहता, तो भी वे उस विषयमें उत्साह नहीं बतलाते और इसके बजाय ग्रन्थमालाकी साइज, टाईप, प्रिंटींग, बाइंडींग, हेडिङ्ग आदिके बारेमें वे खूब सूक्ष्मतापूर्वक विचार करते रहते और उस सम्बन्ध में विस्तारसे चर्चा किया करते । उनकी ऐसी अपूर्व ज्ञाननिष्ठा और ज्ञानभक्तिने ही मुझे उनके स्नेहपाशमें बद्ध किया और इसलिये मैं यत्किंचित् इस प्रकारको ज्ञानोपासना करनेमें समर्थ हुआ।
उक्त प्रकारसे भवनको ग्रन्थमाला समर्पित करनेके बाद, सिंघीजीकी उपर बतलाई हुई उस्कट आकांक्षा लक्ष्यमें आनेसे, मेरा प्रस्तुत कार्यके लिये और भी अधिक उत्साह बढा । मेरी शारिरिक स्थिति, इस कार्यके अविरत श्रमसे प्रतिदिन बहुत अधिक तीवताके साथ क्षीण होती रही है, फिर भी मैंने इस कार्यको अधिक वेगवान और अधिक विस्तृत बनानेकी दृष्टिसे कुछ योजनाएं बनानी शुरू की। अनेक छोटे बड़े ग्रन्थ एकसाथ प्रेसमें छपनेके लिये दिये गये और दूसरे वैसे अनेक नवीन नवीन ग्रन्थ छपानेके लिये तैयार किये जाने लगे। जितने अन्थ अब तकमें कुल प्रकट हुए थे उतने ही दूसरे ग्रन्थ एक साथ प्रेसमें छपने शुरु हुए और उनसे भी दूनी संख्याके ग्रन्थ प्रेस कॉपी आदिके रूपमें तैयार होने लगे। - इसके बाद थोड़े ही समयके पीछे-अर्थात् सेप्टेम्बर १९४३ में-भवनके लिये कलकत्ताके एक निवृत्त प्रोफेसरकी बड़ी लाईब्रेरी खरीदनेके लिये मैं वहाँ गया। सिंधीजी द्वारा ही इन प्रोफेसरके साथ बातचीत की गई थी और मेरी प्रेरणासे यह सारी लाईब्रेरी, जिसकी किंमत ५० हजार रुपये जितनी मांगी गई थी, सिंघीजीने अपनी ओरसे ही भवनको भेट करनेकी अतिमहनीय मनोवृत्ति प्रदर्शित की थी। परन्तु उन प्रोफेसरके साथ इस लाईब्रेरीके सम्बन्धमें योग्य सोदा नहीं हो सका तब सिंधीजीने कलकत्ताके सुप्रसिद्ध स्वर्गवासी जैन सद्गृहस्थ बाबू पूर्णचन्द्रजी नाहरकी बड़ी लाईब्रेरी ले लेनेके विषय में मुझे अपनी सलाह दी और उस सम्बन्धमें स्वयं ही योग्य प्रकारसे उसकी व्यवस्था करनेका भार अपने सिर पर लिया।
कलकत्तामें और सारे बंगालमें उस वर्ष अन्न-दुर्भिक्षका भयंकर कराल-काल चल रहा था। सिंधीजीने अपने वतन अजीमगंज-मुर्शिदाबाद तथा दूसरे अनेक स्थलोंमें गरीबोंको मुफ्त और मध्यमवित्तोंको अल्प मूल्यमें हजारों मन धान्य वितीर्ण करनेकी उदार और बड़ी व्यवस्था की थी, जिसके निमित्त उन्होंने उस वर्षमें
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