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विषयानुक्रमणी २५. पूर्वचतुर्थवर्णादेशः
२०५-१० [हकार के स्थान में पूर्वचतुर्थ वर्णा देश, एव' पदपाठ की तृतीयमतव्यवच्छेदार्थता, श्रुत - अनुमित विधियों में श्रुतविधि की बलवत्ता, विद्यानन्द-भर्तृहरिकुलचन्द्र आदि आचार्यों के अभिमत, पाणिनि के द्वारा पूर्वसवर्णा देश का विधान, दो विभाषाओं के मध्य में पठित विधि की नित्यता, ५ शब्दों की
रूपसिद्धि] २६. तकारस्य पररूपम्
२१०-१३ [पदान्तवर्ती तकार को पररूप, विविध आक्षेपों का समाधान, सुखार्थ विधि - शब्दपाठ आदि का महत्त्व – 'अहो रे पाण्डित्यम्, सुखादन्यः कः पदार्थो गरीयान्', टीकाकार-कुलचन्द्र-विद्यानन्द आदि आचार्यों के अभिमत,
शब्दरूपसिद्धि] २७. तकारस्य चकारादेशः
२१३-१६ [पदान्तवर्ती तकार को चकारादेश, सूत्र का आनर्थक्य तथा सार्थक्य, हेमकर-विद्यानन्द आदि आचार्यों के अभिमत, शब्दव्युत्पत्ति, प्रश्न के रूप में प्रसिद्धवचन का स्मरण -
चं शे सूत्रमिदं व्यर्थं यत् कृतं शर्ववर्मणा।
तस्योत्तरपदं ब्रूहि यदि वेत्सि कलापकम् ॥ उत्तर के रूप में प्रसिद्ध श्लोकवचन -
मूढधीस्त्वं न जानासि छत्वं किल विभाषया।
यत्र पक्षे न च छत्वं तत्र पक्षे त्विदं वचः॥ दो शब्दों की रूपसिद्धि] २८. ङ्-ण-न्वर्णानां द्वित्वम्
२१६-१९ [पदान्तवर्ती इन तीन वर्गों का द्वित्व, विविध परिभाषावचनों की योजना, पाणिनीयप्रक्रिया की दुरूहता, तीन शब्दों की रूपसिद्धि]