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विषयानुक्रमणी विकारविषयक आपिशलीय मान्यता की कुलचन्द्र, केकर, श्रीपति आदि आचार्यों द्वारा व्याख्या, स्थानी-आदेश-निमित्त का पूर्वाचायों मारा प्रयोग, १०
रूपों की सिद्धि] १६. गुणसन्धिः
१२९-३७ [कातन्त्र के अनुसार पूर्ववर्ती अवर्ण को ही ‘ए-ओ-अर्-अल्' हो जाना और परवर्ती 'इवर्ण-उवर्ण-ऋवर्ण-लुवर्ण' का लोप, अनेक वार्त्तिकवचन, श्रीपतिसुभूति-चन्द्रगोमिन्-काशिकाकार आदि आचार्यों के अभिमत, भाष्य और चान्द्रव्याकरण में विरोध होने पर दोनों की प्रामाणिकता, अनेक परिभाषावचनों
की व्याख्या तथा ८ शब्दरूपों का साधनप्रकार] १७. वृद्धिसन्धिः
१३७-४६ [पूर्ववर्ती अवर्ण को 'ऐ-औ' आदेश तथा परवर्ती ‘ए-ऐ-ओ-औ' का लोप, अनेक वार्तिकवचन, अनेक परिभाषावचन, कुलचन्द्र-श्रीपति-हेमकर आदि
आचार्यों के विविध मत, ४ शब्दों की सिद्धि ] १८. यकारायादेशसन्धिः (यणसन्धिः)
१४७-५४ [पूर्ववर्ती इवर्ण को यकार, उवर्ण को वकार, ऋवर्ण को रकार, लवर्ण को लकार आदेश तथा परवर्ती असवर्ण स्वर के लोप का अभाव, अनेक शब्दों की व्युत्पत्ति, पाणिनीय प्रक्रिया में शब्दलाघव और कातन्त्रप्रक्रिया में अर्थलाघव, 'अन्ये केचित्' आदि प्रतीकों से विविध मतों का स्मरण, आठ शब्दरूपों की
सिद्धि] १९. अयायादेशसन्धिः
१५४-६३ [पूर्ववर्ती 'ए-ओ-ऐ-औ' के स्थान में क्रमशः 'अय्-अव्-आय्-आव्' आदेश एवं परवर्ती असवर्ण स्वर का लोपाभाव,शार्ववर्मिक कातन्त्रव्याकरण में विभक्तिपद-वर्णों का आदि-मध्य-अन्तलोप, सूत्रों में विवक्षानुसार सन्धि, कुलचन्द्रश्रीपति-टीकाकार आदि आचार्यों के अभिमत, वर्णागम आदि ५ प्रकार के निरुक्त की व्याख्या, संहिता में नित्यता और विवक्षा, पाणिनि-कात्यायनभाष्यकारों में उत्तरोत्तर की प्रामाणिकता, आठ शब्दरूपों की सिद्धि]