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कातन्त्रव्याकरणम्
९. 'वर्ग-अपोष-घोषवत्-अनुनासिक-अन्तस्था-ऊष्म' संज्ञाः
७८-९१ व्यञ्जनवर्णों की छह संज्ञाएँ. पूर्वाचार्यों द्वारा इनका प्रयोग, अन्वर्थता,
पाणिनीयव्याकरण में इनके लिए प्रयुक्त शब्द, विविध भेदकथन] १०. 'विसर्जनीय - जिह्वामूलीय-उपमानीय' संज्ञाः
९१-९६ [विसर्जनीय का उभवविधत्व, अन्वर्धता, कलापव्याकरण में इसकी योगवाहता तथा पाणिनीय व्याकरण में अयोगवाहता, लिपिस्वरूप, इसके स्थान में होने वाले आदेश-जिह्वामूलीय तथा उपध्मानीय, कलाप तथा पाणिनीय व्याकरण
में इनका लिपिभेद] ११. अनुस्वारसंज्ञा
[अनुस्वार की स्वरात्मकता तथा व्यजनामकला, लिपिस्वरूप, इसका योगवाह
होना] १२. पदसंज्ञा
९९-१०८ [ऐन्द्र व्याकरण तथा वाजसनेयिप्रातिशाखा के आधार पर की गई यह संज्ञा, पद के अनेक भेद, अन्वर्थता, पूर्वाचार्यों तथा अचीन आचार्यों द्वारा व्यवहार,
वाक्यपदीय की मान्यता] १३. व्यञ्जनवर्ण- सम्मिलितवर्णविषयकनियमः
१०८-११ [व्यञ्जन को परवर्ती वर्ण के साथ मिला देना, सम्मिलित वर्गों का विभाग विना ही अतिक्रमण किए करने का निर्देश, पाणिनि द्वारा लोकप्रसिद्धिवशात्
या वर्णस्वभाववशात् इस प्रकार के नियम न बनाना] १४. लोकोपचारादनुक्तशब्दसिद्धिः
१११-१८ [अनुक्तशब्दों की विविध आचार्यों द्वारा की गई साधुत्वव्यवरण, लोकार्थकथन, वैदिक शब्दों के साधुत्वविधान न करने का स्पष्टीकरण, करापव्याकरण का वेदाङ्गत्व, पाणिनीय व्याकरण का अकालकत्व ] द्वितीयः समानपादः
११९-१७५ १५. सवर्णदीर्घसन्धिः
११९-२८ [पूर्ववर्ती समानसंज्ञक वर्ण को दीर्घ तथा परवर्ती सवर्णसंज्ञक वर्ण का लोप, आगम-विकार-आदेश-लोप में अन्तर, पाणिनीव दीर्घविधि का अपकर्ष, आदेश