Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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( २२ ) पट्ठक्गस्स' इन चार सूत्र गाथाओंका व्याख्यान करना चाहिए। इन सूत्रगाथाओंके अनुसार कषायोंको उपशमानेवाले जीवका परिणम कैसा होता है आदिको मूलसे जान लेना चाहिए। उपयोग कौन होता है ऐसी पृच्छाका स्पष्टीकरण करते हुए टीकामें दो उपदेशोंका निर्देश किया गया है। प्रथम उपदेशके अनुसार नियमसे श्रुतज्ञानरूपसे उपयुक्त होता है यह बतलाया गया है। किन्तु दूसरे उपदेशके अनुसार उक्त जीव श्रुतज्ञान, मतिज्ञान, अचक्षुदर्शन या चक्षुदर्शनरूपसे उपयुक्त होता है यह कहा गया है। सो यहाँ ध्यानकी भूमिका होनेसे यद्यपि मुख्यतासे श्रुतज्ञानरूप उपयोग होता है पर एक तो मतिज्ञान और श्रतज्ञानका जोड़ा है, दूसरे श्रुतज्ञान, मतिज्ञानपूर्वक होता है और मतिज्ञानके पूर्व चक्षुदर्शन या अचक्षुदर्शन नियमसे होता है, अतः इस क्रमको दिखलानेके लिए जहाँ तक हम समझते हैं कि इस विवक्षासे यहाँपर श्रुतज्ञानके अतिरिक्त अन्य उपयोग स्वीकार किये गये हैं।
___ इस प्रकार अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें परिणाम कैसा होता है, योग कौनसा होता है आदि तथ्योंको मूलसे जान लेना चाहिये। इसके बाद यह जीव अपूर्वकरणमें प्रवेश करता है । इसके प्रथम समयसे ही स्थितिकाण्डकघात आदि कार्य प्रारम्भ हो जाते हैं । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि कषायोंको उपशमानेबाला जीव यदि क्षायिकसम्यग्दृष्टि है तो उसके घातके लिए गृहीत स्थितिकाण्डक नियमसे पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण होता है। प्रत्येक स्थितिबन्धापसरणके बाद स्थितिबन्धमेंसे जितनी स्थितिका अपसरण करता है वह भी पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण होता है। अनुभागकाण्डक अशुभ कमोंके अनन्त बहुभागप्रमाण होता है तथा गुणश्रेणि आयाम अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होता है । इसप्रकार पूर्वोक्त विधिसे स्थितिकाण्डकसहस्रपृथक्त्व जानेपर निद्रा और प्रचलाकी बन्ध व्युच्छित्ति होती है । पश्चात् अन्तर्मुहूर्त काल जानेपर परभवसम्बन्धी नामकर्मकी प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। यहाँ यशःकीर्तिकी बन्धव्युच्छित्ति नहीं होती, इसलिए उसे छोड़ देना चाहिए। ये सब नामकर्मकी प्रकृतियाँ गोत्रकी सहचर हैं, इसलिए सूत्र में इन्हें गोत्रसंज्ञासे अभिहित किया गया है । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि निद्रा और प्रचलाकी बन्धव्युच्छित्ति अपूर्वकरणके कालके संख्यातवें भागप्रमाण कालके जानेपर होती है और परभवसम्बन्धी नामकर्मकी प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति छह बटे सातभागप्रमाण कालके जानेपर होती है । तथ। अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें हास्य, रति, भय और जुगुप्साकी बन्धव्युच्छित्ति होती है । यह अपूर्वकरणमें बन्धव्युच्छित्तिका विचार है। उदयव्युच्छित्तिको अपेक्षा विचार करनेपर हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्साकी उदयव्युच्छित्ति भी इस गुणस्थानके अन्तिम समयमें होती है।।
___ इसके बाद अनिवृत्तिकरणमें प्रवेश करनेपर यहाँ भी स्थितिकाण्डकघात आदि वे सब कार्य होते हैं जो अपूर्वकरणके प्रथम समयमें प्रारम्भ किये थे। साथ ही इसके प्रथम समयमें अप्रशस्त उपशामनाकरण, निघत्तीकरण और निकाचनाकरण इनकी व्युच्छित्ति हो जाती है । कर्मके उत्कर्षण, अपकर्षण और परप्रकृतिसंक्रमके योग्य होनेपर भी उदीरणाके अयोग्य होना अप्रशस्त उपशामनाकरण है। कर्मके उत्कर्षण और अपकर्षणके योग्य होकर भी परप्रकृति संक्रम और उदीरणाके अयोग्य होना निधत्तीकरण है तथा कर्मके उत्कर्षण आदि चारोंके अयोग्य होना निकाचनाकरण है। जिन कर्मोंकी बन्धके समय अप्रशस्त उपशामना निधत्ती और निकाचनारूप अवस्था होती है, यहाँ अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें उनकी व्युच्छित्ति होकर यहाँसे आगे वे सब कर्मपरमाणु उदीरणा आदिके योग्य हो जाते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है।