Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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बतलाया गया है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करनेवाला जीव अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीन करणपूर्वक ही उक्त प्रकृतियोंकी विसंयोजना करता है । दर्शनमोहनीयकी उपशामना अनुयोगद्वारमें इनके लक्षणोंका कथन कर आये हैं उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिये । अधःप्रवृत्तकरणरूप विशुद्धिके ये विशेष कार्य हैंहजारों स्थितिबन्धापसरण, अशुभ कर्मोंका प्रतिसमय अनन्तगुणी हानिरूपसे अनुभागबन्धापसरण और शुभ कर्मोंका प्रतिसमय अनन्तगुणी वृद्धिरूपसे चतुःस्थानीयबन्ध । यहाँ न तो स्थितिकाण्डकघात होता है और न ही अनुभागकाण्डकघात, गुणश्रेणि और गुणसंक्रमरूप कार्य विशेष ही होते हैं। ये सब कार्य अपूर्वकरणरूप परिणामोंके होनेपर ही प्रारम्भ होते हैं। इतना अवश्य है कि यहाँ होनेवाली गुणश्रेणि सम्यक्त्वकी उत्पत्ति, संयतासंयत और संयतसम्बन्धी गुणश्रेणियोंसे प्रदेशोंकी अपेक्षा असंख्यातगुणी होती है और गुणसंक्रम मात्र अनन्तानुबन्धीचतुष्कका होता है, अन्य प्रकृतियोंका नहीं। अपूर्वकरणके प्रथम समय में जितना स्थितिबन्ध और स्थितिसत्कर्म होता है उससे उसके अन्तिम समयमें स्थितिबन्ध स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा हीन होता है। उसके बाद यह अनिवृत्तिकरणरूप परिणामोंको प्राप्त करता है। वहाँ प्रथम समयमें अनन्तानुबन्धियोंका स्थितिसत्कर्म अन्तःकोडाकोड़ीके भीतर लक्ष्य पृथक्त्वसागरोपमप्रमाण होता है और शेष कोका अन्तःकोड़ाकोड़ीके भीतर होता है । यहाँ भी वे सब कार्य प्रारम्भ रहते हैं जो अपूर्वकरणमें प्रारम्भ हुए थे। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजनामें अन्तरकरणरूप क्रिया नहीं होती। यह क्रिया दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयकी उपशामना और चारित्रमोहनीयकी क्षपणामें ही होती है, अन्यत्र नहीं। इसके बाद हजारों अनुभागकाण्डकघातगर्भित एक-एक स्थितिकाण्डकघातपूर्वक हजारों स्थितिकाण्डकघातोंको करता हुआ अनन्तानुबन्धीके स्थितिसत्कर्मको क्रमसे असंज्ञी, पंचेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और एकेन्द्रियके स्थितिबन्धके समान करके पुनः उसी विधिसे पल्योपमप्रमाण स्थितिसत्कर्मको स्थापित कर तत्पश्चात् शेष स्थितिके संख्यात बहुभागप्रमाण स्थितिकाण्डको ग्रहणकर दूरापकृष्टिप्रमाण स्थितिसत्कर्मको स्थापित करता है। पश्चात उत्तरोत्तर शेष स्थितिके असंख्यात बहभागप्रमाण प्रत्येक स्थितिकाण्डकके द्वारा घात करता हुआ अन्तमें उदयावलि बाह्य अन्तिम काण्डककी अन्तिम फालिको शेष कषायोंकी स्थितिमें संक्रमित कर प्रकृत क्रियाको सम्पन्न करता है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजनाका यह क्रम है। इस प्रकार अनन्तानुबन्धीचतष्ककी विसंयोजना करनेके बाद अन्तर्मुहूर्तकालतक अधःप्रवृत्तसंयत होकर असातावेदनीय और अरति आदिका बन्ध करता है।
पश्चात् अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा दर्शनमोहनीयको उपशमाता है, क्योंकि वेदकसम्यग्दर्शनके साथ उपशमश्रेणिपर चढ़ना सम्भव नहीं है। या तो क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव उपशमश्रेणिपर आरोहण करता है या जो वेदकसम्यग्दृष्टि जीव उपशमश्रेणि पर आरोहण करनेके पूर्व द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि हो जाता है वह उपशमश्रेणिपर आरोहण करता है ऐसा नियम है।
इसके भी पहलेके समान तीन प्रकारके करणपरिणाम होते हैं तथा प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवालेके अधःप्रवृत्तकरणमें जो कार्य विशेष बतला आये हैं वे सब तथा अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर जिसप्रकार स्थितिघात, अनुभागघात और गुणश्रेणि बतला आये हैं उसी प्रकार यहाँपर भी जानना चाहिए। वहाँकी अपेक्षा इस विषयमें यहाँ कोई अन्तर नहीं है। यहाँ गुणसंक्रम नहीं होता। यहाँ स्थितिबन्धापसरणका कथन भी उसी