Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 22
________________ ( १९ ) है या सम्भव नहीं है ऐसी पृच्छा करके चारित्रमोहनीयविषयक प्रकृत उपशामनाकी सूचना की गई है। ३. कौन कर्म उपशान्त होता है और कौन कर्म अनुपशान्त रहता है ? ऐसी पृच्छा द्वारा नपुंसकवेद आदि प्रकृतियोंके किस अवस्था विशेषमें कौन कर्म उपशान्त होता है अथवा कौन कर्म अनुपशान्त रहता है इस प्रकारके अर्थकी सूचना की गई है। 'कदिभागुवसामिजदि' यह दूसरी सूत्रगाथा है। यह चारित्रमोहनीयको उपशमाते समय उपशमाये जानेवाले प्रदेशपुञ्जका तथा स्थिति और अनुभागके प्रमाणका निश्चय करनेके लिए पुनः उन्हींके सम्बन्धसे बँधनेवाले, वेदे जानेवाले, संक्रमित होनेवाले और उपशमाये जानेवाले स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंके अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए आई है। 'केवचिरमुवसामिजदि' यह तीसरी सूत्रगाथा है। इस द्वारा उपशमन क्रिया तथा उपशमाई जानेवाली प्रकृतिके संक्रमण, उदीरणा आदिके कालके निर्देश करनेकी पृच्छा की गई है। इसके उत्तरस्वरूप उपशामनक्रियामें अन्तर्मुहूर्त काल लगता है ऐसा निर्देश करना चाहिये । इसी प्रकार संक्रमण आदिके विषयमें मूलके आधारसे निर्णय कर लेना चाहिए। 'कं करणं वोच्छिज्जदि' यह चौथी सूत्रगाथा है। इस द्वारा उपशामकके मूल और उत्तर प्रकृतियोंके अप्रशस्त उपशामना आदि आठ करणोंमेंसे किस अवस्थामें कौन करण व्युच्छिन्न रहता है और कौन करण व्युच्छिन्न नहीं रहता तथा कौन करण उपशान्त रहता है और कौन करण उपशान्त नहीं रहता इस विषयकी पृच्छा की गई है। इसका विशेष निर्णय आगे यथास्थान करेंगे। 'पडिवादो च कदिविधो' यह पाँचवीं सूत्रगाथा है । इस द्वारा प्रतिपात कितने प्रकारका है, किस कषायमें प्रतिपतित होता है तथा गिरता हुआ किन प्रकृतियोंका बन्ध करता है यह पृच्छा की गई है। 'दुविहो खलु पडिवादो' यह छठी सूत्रगाथा है। इस द्वारा प्रतिपात भयक्षयसे होनेवाला और उपशमक्षयसे होनेवाला इस तरह दो प्रकारका है। यदि भवक्षयसे प्रतिपात होता है तो बादर रागमें अर्थात् स्थूल कषायसे युक्त अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें प्रतिपात होता है और यदि उपशमक्षयसे होता है तो वह सूक्ष्मसाम्परायमें होता है इन सब तथ्योंका निर्देश किया गया है। इस प्रकार इस सूत्रगाथा द्वारा पिछली सूत्रगाथाके पूर्वाधमें निबद्ध दो पृच्छाओंका निर्णय किया गया है। . 'उवसामणाखएण दु' यह सातवीं सूत्रगाथा है । इस द्वारा पिछली सूत्रगाथामें निर्दिष्ट अर्थकी ही पुनः पुष्टि की गई है। इतना अवश्य है कि पिछली सूत्रगाथामें किस क्षयसे किस कषायमें प्रतिपात होता है यह स्पष्ट नहीं किया गया था। किन्तु इस सूत्रगाथामें यह स्वतन्त्ररूपसे स्पष्ट कर दिया गया है कि भवक्षयसे बादर रागमें और उपशमक्षयसे सूक्ष्म रागमें प्रतिपात होता है। ___'उवसामणाक्खएण दु' यह आठवीं सूत्रगाथा है । इस द्वारा यह पृच्छा की गई है कि उपशामनाके क्षय होनेसे गिरनेवाला जीव आनुपूर्वीसे किन कर्मप्रकृतियोंका बन्ध करता है और किन कर्मप्रकृतियोंका वेदन करता है ? इस प्रकार ये आठ सूत्रगाथाएँ हैं जो इस अनुयोगद्वार में निबद्ध हैं। आगे इनके आधारसे पूरे विषयको स्पर्श करते हुए बतलाया गया है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना किये विना चारित्रमोहनीयकी उपशामना करना सम्भव नहीं है। इसलिए इस अनुयोगद्वारके प्रारम्भमें सर्वप्रथम अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजनाका निर्देश करते हुए

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