Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
View full book text
________________
( २१ ) प्रकार कर लेना चाहिए । इस प्रकार इस विधि से अपूर्वकरणके प्रथम समय में जितना स्थितिसत्कर्म और स्थितिबन्ध प्राप्त होता है, उसके अन्त में वह संख्यातगुणा हीन होता है ।
अनिवृत्तिकरण में भी स्थितिकाण्डकघात आदि कार्य विशेष उसी प्रकार जानने चाहिए । इस प्रकार अनिवृत्तिकरणके संख्यात बहुभागके व्यतीत होने पर सम्यक्त्वके असंख्यात समयप्रबद्धोंकी उदीरणा होती है । तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त काल जाने पर दर्शनमोहनीयका अन्तर करता है । इस क्रियाको करते समय सम्यक्त्वकी प्रथम स्थिति अन्तर्मुहूर्तप्रमाण और मिथ्यात्व तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी उदयावलिप्रमाण प्रथम स्थिति स्थापित करता है । यहाँ जिन स्थितियोंका अन्तर करता है उनमेंसें उत्कीर्ण किये जानेवाले प्रदेशपुञ्जको बन्ध न होनेके कारण प्रथम स्थिति में निक्षिप्त करता है ।
सम्यक्त्वकी द्वितीय स्थिति में स्थित प्रदेशपुञ्जको अपकर्षण द्वारा अपनी प्रथम स्थितिमें क्षिप्त करता है | अन्तर स्थितियोंमें गुणश्रेणिरूपसे निक्षिप्त नहीं करता ।
मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व के भी द्वितीय स्थिति में स्थित प्रदेशपुञ्जको अपकर्षण कर सम्यक्त्वकी प्रथम स्थिति में गुणश्रेणिरूप से निक्षिप्त करता है । तथा अतिस्थापनावलीको छोड़ कर स्वस्थानमें भी निक्षिप्त करता है, अपनी अन्तर स्थितियों में निक्षिप्त नहीं करता । तथा सम्यक्त्वकी प्रथम स्थितिके सदृश उदयावलि बाह्य मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व के प्रदेशपुञ्जको सम्यक्त्वके ऊपर समान स्थिति में संक्रमित करता है । अन्तरकी द्विचरम फालिके पतन होने तक स्वस्थानसंक्रमका यह क्रम चालू रहता है । किन्तु चरम फालिके पतन के समय मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व के प्रदेशपुञ्जको स्वस्थानमें नहीं देता है । किन्तु उनके अन्तरसम्बन्धी अन्तिम फालिके द्रव्यको सम्यक्त्वकी प्रथम स्थिति में ही गुणश्रेणिरूपसे निक्षिप्त करता है ।
सम्यक्त्वकी द्विअन्तिम फालिके द्रव्यको अन्यत्र निक्षिप्त नहीं करता, अपनी प्रथम स्थिति में ही निक्षिप्त करता है । प्रथम स्थितिमें स्थित द्रव्यका उत्कर्षण कर उसे द्वितीय स्थिति में निक्षिप्त नहीं करता, बन्धका अभाव होने के कारण स्वस्थानमें ही अपकर्षित करता है । द्वितीय स्थिति के द्रव्यका अपकर्षण होकर आवलि और प्रत्यावलिके शेष रहने तक प्रथम स्थिति में निक्षेप होता है । उसके बाद आगाल- प्रत्यागालका विच्छेद हो जाता है तथा वहाँसे लेकर गुणश्रेणिरचना नहीं होती । मात्र प्रत्यावलिमें से उदीरणा होती है । और इस प्रकार प्रथम स्थिति के अन्तिम समय में अनिवृत्तिकरण समाप्त होकर तदनन्तर समय में उपशम सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है ।
यहाँ पर सम्यक्त्वकी प्रथम स्थितिके क्षीण होनेपर मिथ्यात्व के प्रदेशपुञ्जका सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व में गुणसंक्रमद्वारा संक्रम नहीं होता, विध्यातसंक्रम होता है । प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न करनेवाले जीवका गुणसंक्रमद्वारा जितना पूरणकाल प्राप्त होता है उससे संख्यातगुणे कालतक यह द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि जीव विशुद्धि द्वारा वृद्धिको प्राप्त होता है । उसके बाद संक्लेश-विशुद्धिवश वह स्वस्थानमें हानि-वृद्धि और अवस्थानको प्राप्त होता है । तथा हजारों बार प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानों में परिवर्तन करता हुआ प्रमत्तसंयत गुणस्थान में असातावेदनीय और अरति आदि प्रकृतियोंका बन्ध करता है ।
इस प्रकार द्वितीयोपशम सम्यक्त्वको ग्रहणकर कषायोंको उपशमानेके लिए अप्रमत्तसंयत होकर अधःप्रवृत्तकरणरूप परिणामको करता है । इस करणमें जो विशेष कार्य होते हैं उनका निर्देश पूर्व में किया ही है । अधःप्रवृत्तकरण के अन्तिम समय में 'कसायउवसामण