Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 20
________________ ( १७ ) १३ चारित्रलब्धि अर्थाधिकार जयधवलाके निर्देशानुसार चारित्रलब्धि यह तेरहवाँ अर्थाधिकार है। इसका दूसरा नाम संयमलब्धि भी है । 'लद्धी च संजमासंजमस्स' इस सूत्रगाथामें आये हुए 'लद्धी तहा चरित्तस्स' इस गाथावयव द्वारा इसकी सूचना मिलती है। पहले अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें जिन चार सूत्रगाथाओंका निर्देश कर आये हैं उनके अनुसार यहाँ भी परिणाम आदिका विचार कर लेना चाहिये । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि संयमगुणकी प्राप्ति मात्र पर्याप्त कर्मभूमिज मनुष्य पर्यायमें ही होती है, इसलिए इस बातको ध्यानमें रखकर उसका स्पष्टीकरण करना चाहिये । दूसरे इस अर्थाधिकारमें वेदकसम्यग्दृष्टि जीवके क्षायोपशमिक चारित्रलब्धिकी प्राप्ति कैसे होती है इसकी मीमांसा की गई है, इसलिए इसकी प्राप्तिमें अध:करण और अपूर्वकरण ये दो प्रकारके ही परिणाम होते हैं, अतः उसकी प्राप्तिके समय आगे चलकर यह जीव न तो किसी कर्मका अन्तर करता है और न ही सर्वोपशामना द्वारा किसी कर्मका उपशामक ही होता है। शेष व्याख्यान मूलसे जान लेना चाहिए । जैसा कि पूर्व में बतला आये हैं कि जो वेदकसम्यग्दृष्टि मनुष्य संयमलब्धिके प्राप्तिके सन्मुख होता है उसके अधःप्रवृत्तकरण और अपूर्वकरण ये दो प्रकारके ही करण परिणाम होते हैं सो इनका जैसा व्याख्यान संयमासंयमलब्धिके प्रसंगसे कर आये हैं उसी प्रकार यहाँ भी कर लेना चाहिए। जिसके संयमलब्धिकी प्राप्ति उपशमसम्यग्दर्शनकी प्राप्तिके साथ भी होती है उसके अधःप्रवृत्त आदि तीनों प्रकारके करणपरिणाम पूर्वक ही उसकी प्राप्ति होती है पर उस आधारसे यहाँ विचार नहीं करना है, क्योंकि जिसने पूर्व में द्रव्यसंयम स्वीकार किया है और जो उसका चरणानुयोगमें बतलाई गई विधिके अनुसार यथावत् पालन करता है उसके जीवादि नौ पदार्थोंके यथावत् परिज्ञानपूर्वक आत्माके सन्मुख होनेपर अध:प्रवृत्त आदि तीन करणपूर्वक प्रथमोपशम सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिके समय ही संयमभावकी प्राप्ति होती है। यहाँ तो ऐसे मनुष्यको लक्ष्यमें रखकर विचार किया जा रहा है जो वेदक सम्यग्दृष्टि होनेके साथ चरणानुयोगके अनुसार द्रव्यसंयमका यथावत् पालन करता है। ऐसा द्रव्यसंयमका पालन करनेवाला मनुष्य मात्र अधःप्रवृत्तकरण और अपूर्वकरण ये दो प्रकारके करण परिणाम करके ही संयमका अधिकारी हो जाता है सो इसका संयमासंयमकी प्राप्तिके समय जैसा विचारकर आये हैं उसी प्रकार यहाँ भी विचार कर लेना चाहिए। इस संयमको प्राप्त हुआ मनुष्य बहुत संक्लेशको प्राप्त हुए विना परिणामवश कर्मोंकी स्थिति में वृद्धि किये विना यदि असंयमपनेको प्राप्त होकर पुनः संयमको प्राप्त होता है तो न तो उसके अपूर्वकरणरूप परिणाम ही होते है और न ही स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकधात ही होता है। परन्तु जो संक्लेशकी बहुलतावश मिथ्यात्वको प्राप्त होनेके साथ असंयमपनेको प्राप्त होकर अन्तर्मुहूर्तबाद या दीर्घकाल बाद संयमको प्राप्त करता है उसके पूर्वोक्त दोनों करण भी होते हैं और यथास्थान स्थितिकाण्डकघात तथा अनुभागकाण्डकघात भी होते हैं। इस प्रकार संयमको प्राप्त हुए जीवोंके संयमस्थान तीन प्रकारके होते हैं-प्रतिपातस्थान, प्रतिपद्यमानस्थान और अप्रतिपात-अप्रतिपद्यमानस्थान । जिस स्थानमें स्थित यह जीव संक्लेशकी बहुलतावश गिरकर मिथ्यात्व, असंयमसम्यक्त्व और संयमासंयमको प्राप्त होता है उसकी प्रतिपातस्थान संज्ञा है । जिस स्थानमें स्थित यह जीव संयमभावको प्राप्त करता

Loading...

Page Navigation
1 ... 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 ... 402