Book Title: Kalyanmandir Stotra
Author(s): Kumudchandra Acharya, Kamalkumar Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री कल्याण मंदिर स्तोत्र सार्थ
तुम प्रतिसुन्दर शुद्ध प्रपरिमित, गुणरत्नों की खानिग्वरूप । वचननि करि कहने को 'उमगा, अल्पबुद्धि मैं तेरा रूप ॥ यथा मन्दमति लघुशिशु अपने दोऊकर को कहै पसार । जल -निधि को देखहु रे मानव, है इसका इतना प्राकार ||
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श्लोकार्थ हे गुणगणात्रिप! जैसे शक्तिहीन प्रबोध बालक सहज स्वभाव से अपनी पतली छोटी २ दोनों भुजाओ को पसार कर विशाल समुद्र के विस्तार फैलाव ) को बतलाने का असफल प्रयत्न करता है ठीक से ही है भगवत् । मे महामूर्ख तथा जड़बुद्धि वाला होकर भी पूर्व अपरिमित गुणों से सुशोभित आपके सच्चिदानन्द स्वरूप की अमर्यादित महिमा का वर्णन करने के लिये उद्यत हो गया हूँ ।। ५ ।
तुम असंख्य निर्मल गुण खानि । मैं मतिहीन कहौं निज वानि ॥ ज्यों वालक निज बांह पसार । सागर परिमित कहे विचार ।। ५ ऋद्धि - ॐ ह्रीं यह गमो गोधणवुद्धिकराणं प्रणतोहिजिणाणं । मन्त्र - ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ब्लूं ग्रहं नमः ।
विधि - प्रतिदिन श्रद्धापूर्वक १०८ बार ऋद्धि और मंत्र की जाप जपने से गुमी हुई मवेशी, लक्ष्मी तथा धन का लाभ होता है ।
ॐ ह्रीं सुखविधायकाय श्री पार्श्वनाथाय नमः ।
He mentions one by one the reasons of Commencing the lymo
though
dull-witted, have
Oh Lord ! I started to sing a song of Thine, the mine of
१ - उत्साहित हुआ । २ स्वरूप या स्वभाव ३-विस्तार या फैलाव ।
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- श्रनन्त अवधिज्ञान वाले जिनों को नमस्कार हो ।