Book Title: Kalyanmandir Stotra
Author(s): Kumudchandra Acharya, Kamalkumar Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री कल्याणमंदिर स्तोत्र सार्थ
यश कीर्तिप्रसारक दिव्यत्रजो जिन ! नमन्त्रिदशाधिपाना
मुत्सृज्य रत्नरचितानपि मौलिबन्धान् । पादो श्रयन्ति भवतो यदि का परत्र',
त्वत्सङ्गमे सुमनसो न रमन्त एव ॥२८|| झुके हुये इन्द्रों के मुकुटों, को तजि कर सुमनों के हार। रह आसे जिन चरणों में ही, मानो समझ श्रेष्ठ प्राधार । प्रभु का छोड़ समागम सुन्दर, सु-मनस' कहीं न जाते हैं। तव प्रभाव से वे त्रिभुवनपति !, भव-समुद्र तिर जाते हैं ।
श्लोकार्थ-हे देवाधिदेव ! पापको नमस्कार करते समय में गुटों में जगी हुई
विमानाय सके श्रीचरणों में गिर जाती हैं मानो वे पुष्पमालायें प्रापसे इतना प्रेम करती हैं कि उसके पीछे इन्द्रों के रत्ननिर्मित मुकुटों को भी वे छोड़ देती हैं। अर्थात् आपके लिये बड़े बड़े इन्द्र भी नमस्कार करते हैं। सेवहि सुरेन्द्र कर नमित भाल, तिन सीस मुकुट सब देहि माल । सुव चरन लगत लहलहै प्रीति,नहि रमहिं और जन सुमन रौति ।।
२८ ऋद्धि-ॐ ह्रीं अर्ह णमो उवदववज्जणाण घोर• गुणाण ।
1-बापरत्र इत्यपि संभवति । २ -- फूलों। ३-विदान । ४.-बोरगुण बाले जिनों को नमस्कार दो।