Book Title: Kalyanmandir Stotra
Author(s): Kumudchandra Acharya, Kamalkumar Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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थी कल्याणमन्दर स्तोत्र सार्थ
प्रज्ञानवत्यपि सदैव कथञ्चिदेव,
ज्ञानं त्वयि स्फुरति विश्व विकासहेतुः ।।३०।। जगनायक जगपालक होकर, तुम कहलाते दुर्गत क्यों ? | यद्यापः अक्षर" मय स्वभाव है तो फिर अलिखित अक्षत क्यों" ज्ञान झलकता सदा पाप में, फिर क्यों कहलाते अनजान' । म्व-पर प्रकाशक अज्ञ जनों को, हे प्रभु ! तुम ही सूर्य समान ।।
लोकार्थ--हे जगपालक! आप तीन लोक के स्वामी होकर भी निर्धन हैं। अक्षरस्वभाव होकर भी लेखनक्रियारहित हैं; इमी प्रकार में अज्ञाना होकर भी त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती पदार्थों के जानने वाले जान से विभूषित हैं।
जिस अलकार में शब्द से विरोध प्रतीत होने पर भी वस्तुतः विरोध नहीं होता उसे विरोधाभास अलंकार कहते हैं। इस श्लोक में इमी अलकार का प्राश्रय लेकर वर्णन किया गया है। उपर्युक्त अर्थ में दिखने वाले विरोध का परिहार इस प्रकार है
हे भगवन् ! ग्राप त्रिलोकीनाथ हैं और कठिनाई से जाने जा सकते हैं । अविनश्वर स्वभाव वाले होकर भी आकार रहित ( निराकार ) हैं । अज्ञानी मनुष्यों को रक्षा करने वाले हैं । आप में सदा केवलज्ञान प्रकाशित रहता है। तुम महाराज निर्धन निरास.तज विभव विभव सब जग विकास। अक्षर स्वभाव से लख न कोय, महिमा अनन्त भगवन्त सोय ॥
१-काशहेतुः इत्यपि पाठः । २-दरिद्र, प्रत्यन्त कठिनाई से बानने योग्य । ३ - प्रसरस्वभाव होकर भी मोमस्वरूप। -लिपि से लिखे नहीं जा सकते, फर्मलेपरहित । ५-प्रशानी होकर भो चमस्थ प्रशानियों को संगघन करने वाले ।