Book Title: Kalyanmandir Stotra
Author(s): Kumudchandra Acharya, Kamalkumar Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री कल्याणमंदिर स्तोत्र सार्थ
conflagrations swallowed up by the irresistible subrnatine Sre ? (i)
अग्निभय विनाशक
४६
स्वा मित्रनपरिमाणमपि प्रपना
स्त्वां जन्तवः कथमहो हृदये दधानाः । नश्यनिलावडेट चिन्त्यो न हन्त महतां यदि वा प्रभावः ॥ ११२
जन्मदिधिषु
छोटी मी मन की कुटिया में, हे प्रभु! तेरा ज्ञान प्रार । कार उसे कैसे जा सकते, भविजन भव-सागर के पार ? पर लघुता से वे तिर जाते, दीर्घभार से डूबत नाहि । प्रभु की महिमा हो अचिन्त्य है, जिसे न कवि कह सकें बनाहि ॥
लोकार्थ हे त्रलोक्यतिलक ! जिसकी तुलना किसी दूसरे से नहीं दी आ सकती. अथवा विश्व में जिसकी बराबरी कोई नहीं कर सकता, ऐसे प्रतिगौरव को प्राप्त । श्रनन्त गुणों के बोझोले भार से युक्त ) आपको हृदय में धारण कर यह जीव संसार-सागर से प्रतिशीघ्र कैसे तर जाता है अथवा माचर्य की बात है कि महापुरुषों की महिमा चिन्तवन में नहीं पा सकती ।। १२ ।।
तुम अनन्त गमा गुन लिये, क्योंकर भक्ति वरू निज हिये । ह्व लघुरूप तिरहि संसार, यह प्रभु महिमा अकथ अपार ||
९- विपुल मतिमन:पर्यय ज्ञानी जिनों को नमस्कार हो । २ - स्वामिनतुल्यरिमाणमपि इत्यपि पाठः । ३ मरलता से । ४ - महान ।