Book Title: Jain Yug 1932
Author(s): Harilal N Mankad
Publisher: Jain Shwetambar Conference

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Page 46
________________ - जैन युग - ता. १५-3-३२ कर आरोपण और उसके नियम. मुगमता से कर सकते हैं, तो चीजा का दाम कम हो जाय [भी चुनीलालजी मालू] और गरीबों को काफी फायदा हो जाय । परन्तु ऐसा हो - (अनुसंधान पृष्ठ ३७ से चालु) नहीं सकता। एक दूसरे को अविश्वास की दृष्टि से देखता अब हम इस पर समाज नीति के दृष्टि कोण से विचार है। खाने, पहनने एवम् लड़ाई के सामान के लिये दूसरे का करें। अनेक ऐसी वस्तुएं है जिनका प्रयोग देशके लिए आश्रित होना कोई भी देश पसन्द नही करता, न मालूम हितकर नहीं हो सकता । जिनके प्रयोग से देश को लाभ के कुसमय में क्या हो जाय। दूसरी बात यह है कि स्वतंत्र बजाय हानि ही होती है। लोगों का स्वास्थ्य बिगड जाता व्यापार ऐसे दो देशों के लिये ही लाभ प्रद हो सकता है है एवम् व्यर्थ में धन का व्यय होता है। ऐसी वस्तुओं के जो दोनों एक ही अवस्था में हो। एक भारतवर्ष जैसा गरीब उदाहरणोंकी कमी नहीं। शराव, अफीम, तम्बाकू इत्यादि और दूसरा इंगलैण्ड जैसा धनी-ऐसे दो देशों में स्वतंत्र पदार्थों का सेवन किसी भी देशके लिये हितकर नहीं बरन् व्यापार की चाल (policy) गरीब देश के लिये लाभ प्रद नाशकारी ही है। समाजिक दृष्टि कोण से इन चीजों का नहीं। गरीब देश का धन सब धनी देश के हाथ लग जायगा सेवन समाजको उच्छंखल एवम् व्यसनी बनाता है। तो फिर तथा राजनैतिक दासता से आर्थिक दासता की जंजीर में ऐसी वस्तुएं कर लगाकर इतनी मंहगी कर दी जाय जिससे फिर जकडा जायगा। यह तो बिल्ली और चूहे की मैत्री होगा। कि सर्व साधारण इनका उपयोग ही न कर सकें तो हज ही इसीलिये जो देश उद्योग धन्धों में इतने नहीं बढ़ गये क्या है ? दूसरी और कई ऐसी वस्तुएं भी है जो हानिकारक है जो दूसरे देशों का सहर्ष मुकाबिला कर सकें रक्षित व्यापार तो नहीं हो सकती परन्तु उनका प्रयोग करना साधारण की चाल का आसरा लेते है। अपने देश के उद्योग धन्धों जनता की शक्ति के बाहिर है। केवल मात्र देश के धनाड्य को मजबूत बनानेक लिये दूसरे देशों से आने वाले माल पर ही उनको प्रयोग कर सकते है। जैसे इत्र, सेंटस इत्यादि कर बैठाते है । हां इससे कहीं निश्चित समय तक चीजों की एशो आराम की चीजें। इन पर जितनी ही कर हो उतनी कीमत तो कुछ अधिक ही रहती है परन्तु देशका पैसा देश ही थोड़ी है। में ही रहता है वेकारी का प्रश्न भी जो देश के उद्योग धन्धों अब अर्थ नीति से कर पर विचार करना बाकी रहा के हास से देश में अशान्ति पैदा कर देता है, हल हो जाता हैं। यही दृष्टि कोण आज के जमाने में सब से मुख्य समझा है। परन्तु यह रक्षण देश के हरएक उद्योग धन्धे को नहीं जाता है। इस युगमें राज्य संचालन में भी अर्थ नीति का दिया जाता वरन् उन्हींको दिया जाता है (Dircriminate स्थान राजनीति से भी प्रथम है। परस्पर भिन्न २ देशों में Protectien) जो कि आगे जाकर खूब सफल हो सकते व्यापार कैसे हो यह भी एक आजकाल गहरी समस्या है। है एवम् दूसरे देशों के मुकाबिला में ठहर सकते है। ऊपर इस में भी दो प्रकार के विचारों के आदमी है। एक दल लिखे अनुसार अर्थ नीति से देशके उद्योग धन्धों, तथा बेकारी स्वतंत्र व्यौपार (Free trade) का पक्षपाती है एवम् दूसरा के प्रश्न को हल करने के लिये कर का होना किसी हद तक अनिवार्य है दल रक्षित व्यौपार ( Protected trade ) का। स्वतंत्र अब हमें इसके साधारण नियमों पर विचार करना है। व्यौपार के पक्षपातियों का कहना है कि भिन्न देशों को विना | यह किस रीति से लगाई जाती है एवं कर के रुपये इकट्ठ किसी रुकावट तथा कर के परस्पर में व्यापार करना चाहिए। करती वक्त किन २ बातों पर ध्यान रखना जरूरी है। इससे मैत्री भावकी वृद्धि होती है तथा आर्थिक लाभ भी होता कर दो प्रकार से लगाई जाती है। प्रथम Direct. है। जैसे अमुक देश कपडा नहीं बना सकता तो उसे दूसरे अर्थात किसी खास व्यक्ति पर जैसे incometax | इसका देश से कपडा ले लेना चाहिये और अपनी शक्ति उसी चीज बोझ उसी व्यक्ति पर पड़ता है जिसको कि किसी नियमित के बनाने में लगा देनी चाहिये जिसे कि वह सुगमता एवम् हद से जादा फायदा हुआ हो। वह अपनी कर का बोझा उतमता से बता सकता है। बहुत सी ऐसी भी वस्तुएं है किसी दूसरे व्यक्ति पर डाल नहीं सकता। इसको अंगरेजी जो किसी खास देशनें उसके जलवायु के कारण सस्ती एवम् में incident of tax कहते है। दूसरी रीति है indirect उतम बनाई जा सकती है। इसीलिये तमाम देश अपने देशों tax यह किसी वस्तु पर लगाई जाती है। इसके उदाहरण में वे ही वस्तुएं तैयार करने लग जाय जो वे सस्ती एवं ( अनुसंधान पृष्ट ४५ में) Printed by Mansukhlal Hiralal at Jain Bhaskaroday P. Press, Dhunji Street, Bombay and published by Harilal N. Mankar for Shri Jain Swetamber Conference at 20 Pyxdhoni, Bombays

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