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- न युग -
ता. १५.१-३२ जैन समाज! अपनी सुध ले! बस! युवको! कार्य क्षेत्र में उतर आओ, फिर तुह्मारे (लेखकः-ईश्वरलाल जैन विशारद हि. रत्न.) शत्रु आपसे आपही दूर भागेंगे, तुह्मारा मार्ग स्वयंसाफ हो ए जैन समाज और उसके स्तंभरूप नवयुवक ! उठो!
जायगा, पृकति तुह्मारी सहायता करेगी-और भाग्य तुह्मारे कुछ देरके लिये अपने को सम्हालो, कुम्भकर्णी निद्राको त्याग
आधीन हो जायगा। दो, अपनेपर से अज्ञात तथा प्रमाद का पर्दा हटाकर देखो,
ए जैन समाज! तूं धर्म के नाम पर पाप न कर तुझे तुम्हारे चारो ओर पहिले क्या दशा थी, और इस समय क्या
सच्चा स्वामिवात्सल्य करना है तो गरीबों को भोजन दे।
गरीबों के लिये ऐसा प्रबन्ध कर कि उन्हें दर दर भटकना दशा है, पहिले कहां थी, और अब कहां पिछडी हुई पड़ी है। क्या तुम उस हालत को नहीं देखना चाहते ! इतने -
न पड़े यह तेरा धर्म है। 'जिन के पास पर्याप्त धन है कठोर हृदयी और निर्दयी हो गये, क्या तुम्हारी दो आंसं भी काफी भोजन है, उनको यदि तूने मिठाईयां खिलाई तो नहीं टपकती ? कान खोलकर सुनो तो सही, की युग धर्म
कौनसा उपकार किया ? और कौनसा धर्म किया। एक दिन
का भोजन देकर हजारों खर्च करनेकी अपेक्षा कई तुझार तुम्हें क्या सन्देश देना चाहता है ? सो रहे हो नींद में अब जब कि सारे जागते।
गरीब भाईयों का जीवन भरका भोजन देने से सच्चा स्वामिपांव पकड बैठे हुए हो और हैं जब भागते ॥
यात्सल्य होता है, अब जरा आखें खोल कर देखो तुह्मारी ___ तुम किस अभिमान में मस्त पडे हो? क्या यह अभि
__समाज में कितने गरीब है, जो पेट पर हाथ रख कर भूखे
ही सो रहते हैं।' मान है कि तुम्हारा धर्म अनादि है, न, अब इस अभिमान ।
ए जैन समाज! तू इस बात पर विचार कर, कि तेरे में न रहता, तुम्हें मालूम नहीं कि अब तो जमाना काम
कितने सपूत धनाभाव के कारण विद्यासे वंचित तडप करनेका है न कि बैठे बैठे बातें बनाने का ! उठो! कुछ काम
रहे हैं, आज तेरे कितने ही गेज्युएट तेरे कालेज के अभाव से करो, यदि ऐसे बैठे ही बैठ अपनी प्राचीनता और प्रशन्सा के
दूसरे कालेजी में जा रहे हैं, और दूसरे धर्मो के शिकार हो पुल बान्धोगे, तो तुम्हार धर्म और तुम्हारी समाज पर आक्र. । मण कर तुम्हारी सत्ता को ही मिटा देने वाले पूर्णरूप से ।
तर छोटे छोटे बच्चे अपने माता पिता से वंचित तैयार बैठे हैं।
होकर दर दर ठोकरें खा रहे हैं, क्या उन के लिये भी तेर उठो ! कार्य करो! क्या भाग्य का चिन्तवन कर रहे
पास पर्याप्त साधन नहीं, तो फिर दया भाव कहां गया, हो. परन्तु अब भाग्य तुम्हारी सहायता नहीं करेगा,
इतनाभी तरस नहीं आता? ' "दैव दैव आलसी पुकारा"
जैन समाज ! विचार करो, शास्त्रो में द्रव्य क्षेत्र काल केवल भाग्य के आधार पर किसी ने सफलता प्राप्त और भाव को देखकर कार्य करने का सन्देश है. यदि तुम नहीं की. केवल भाग्य के आधार पर किसीने विजय प्राप्त न शास्त्रों को माननेवाले हो. तो आ जाओ मैदान में, अपने नहीं की, केवल भाग्य से कोई अपने उद्देश्य तक नहीं पहुंचा, धन को विद्या में लगाओ, दीन दुःखियों को स्वामिवात्सल्य हमारे पूर्वज अपना गौरव कायम कर गये, भाग्य पर बैठे
कराओ, समाज में सपूत पैदा करो, विधनाओ और अनाथों बरु नहा, प्रत्युत दश-धम-गर समाज म काम फरक अपन को आश्रय दो, विद्या से वंचितों के लिये साधन पैदा करो, को अमर कर गये। संसारभरका इतिहास खोज डालो, उसके अपनी समाज में कालेज, हाइस्कूल और गुरुकुल आदि खोला पृष्ठ पृष्ठ पर वीरों की अमर जीवतियां होगी, तुम्हें कहीं पर जिस में समाज के सपूत निकलकर समाज की सेवा कर, यही भाग्याधीन मनुष्य की विजय पताका नजर नहीं आयगी। इस युग का कार्य है। तुम्हें कोई भी ऐसा धर्म और समाज नहीं मिलेगा, कि जिस एजैन समाज के नवयुवको ! अब समय सोनेका नहीं, ने बैठे बैठे तरक्की की हो, जो जाति धर्म शील रही, विजय अब तो पसीना बहाकर काम करनेका है। पाती रही, उसने सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया, अकर्मण्य जातियां ए आपस में भेद भाव रखनेवाले बंधुओ! जरा सोचो सदा पद दलित होती रही, जिन का नाम लेना मी आज तो सही. कि तह्मारी फट से तह्मारी लडाइयों से तुहार धर्म लोग पाप समझते हैं।
की उन्नति हुई या अवनति, तुझारे महावीर की बाजी फैली ___वास्तव में “भाग्य उसकी सहायता अवश्य करता है या तुम्हारी पुस्तको में रही रद गई। जो कुछ काम करता है"।
(अनुसंधान पृ. ९३ पर देखें.) Printed by Mansukhlal Hiralal at Jain Bhaskaroday P. Press, Dhunji Street, Bombay and published by Harilal N. Mankar for Shri Jain Swetarber Conference at 20 Pydhoni, Bombay 3.