Book Title: Jain Yug 1932
Author(s): Harilal N Mankad
Publisher: Jain Shwetambar Conference

View full book text
Previous | Next

Page 168
________________ १९८ ता. १५-११-३२. - - - श्री केसरिया नाथ जी तीर्थ पर पंडों का अनुचित हस्ताक्षेप 3D श्री केसरियानाथजी श्वेताम्बर जैनों का एक प्रसिद्ध बदले मिलेगा बाकी सब बालियों, आंगी आदिका रुपया और प्राचीन तीर्थ रियासत उदयपुर में राजधानी से ४२ भंडार में जावेगा। कुछ समय तक इसी मुजब काम मील के फासले पर है। यह एक उच्च कोटि प्रभाव- चलता रहा धीरे धीरे फिर पंडे लोगों ने गडबड शुरू शाली तीर्थ होने के कारण हजारों जैन यात्रियों को भरदी जिस पर १९३४ में मंदिर जी का प्रबन्ध दरबार प्रतिवर्ष आकर्षित करता है इसी लिये यहां सदा मेला की ओर से एक कमेटी के सिपुर्द हुआ और पण्डों को भरा रहता है। हमारे श्रद्धालु भाई सैकडों और हजारों पहले की तरह केवल १) रोजाना मिलता रहा शेष रुपये इस पवित्र तीर्थ पर भेंट चढाते हैं। इसी लिये सब भंडार में जमा होता रहा। भंडार में लखूखा रुपया इकट्ठा हो गया है। धीरे २ शिथिलता आई और पंडे लोग आज्ञासे विपरीत चिर काल से श्वेताम्बा जैन स्थानिक नगर सेठ चलने लगे। इसका पता वि. स. १६७६ में लगा जब एक द्वारा इस तीर्थ का प्रबन्ध करते चले आये है । आरम्भ यात्रीने रुपया १२००) की बोली ली लेकिन जब उसे पता में पण्डे लोग केवल सेवक के तौर पर धुलेवा गांव लगा कि बोलियों के रुपये पंडे हडप कर लेते हैं, उस (जहां पर श्री केसरिया नाथजी का मंदिर है) में आबाद महानुभाव ने वहां रुपये न देकर उदयपुर में जमा हये और अपने आप को जैन श्री संघ के सेवक, इस करा दिये जो कि उस यात्री के चले जनि फे बाद मंदिर के पुजारी और यात्रियों की सेवा करनेवाले कहते अफसर देवस्थान ने अन्याय करके पंडों को दे दिये । रहे । इस आशय की कई एक लिखतें पंडे लोगों की इस पर उदयपुर की वरादरी को आश्चर्य हुवा तरफ से मौजुद हैं। इस समय वहां गांव में तीन भांति d और दरखास्त द्वारा दरबार का ध्यान इस और ओर आकके पण्डे हैं प्रथम वे आठ घर जो आमरय वाले कह-वित किया जिस पर बि. सं. १६७६ में अन्तिम लाते हैं दूसरे वे सात घर जो पुजारी के तौर पर वहां । हुकुम यह हुवा कि पूर्ववत् पंडों को १) रोनाना देकर मंदिरजी में बारी बारी काम करते है तीसरे वे लग- की कल म भण्डार में जमा हो और यदि पण्डों भग साठ घर जो केवल यात्रियों की ही सेवा करते हैं को कोई उजर हो तो दिवानी कोर्ट से फैंसला करावें । और लागी के तौर पर हम लोगों को यजमान समझ पण्डों ने बि. सं. १६८८ में मुनसफी में दावा किया कर दान मांगते हैं। प्रथम और दूसरी प्रकार के पंडे कि हमारा तीर्थ पर हक हैं कांकि तीर्थ वैष्णवों का तृतीय प्रकार के पंडों जैसा भी काम कर रहे हैं। अब है और श्री ऋषभ देवजी हमारे आठवें अवतार है पहली और दूसरी प्रकार के पंडे ही केसरिया जी में इत्यादि इस मुकदमे में देव स्थान श्री ऋषभ देवजी एक झगडा पैदा कर रहे हैं। समय के प्रभाव से नगर फरीक बनाये गये, वकील मुकरर हुआ और जवाब सेठ में शिथिलता आने के का ण पंडों ने मर्यादा को दावा दायर किया गया । इसके बाद न तो फरीक देव उलंघन करके उपद्रव करना आरम्भ किया । और यह स्थान ऋषभ देव से कोई बात पूछी गई और न पुराने दिन प्रतिदिन बढता गया। यहां तक कि पंडे लोग कागजात पर गौर किया गया कार्ट ने ज्युडीशल काररबलपूर्वक बिना भेंट लिये हमारे भाइयों को पूना सेवा बाई की बजाय जैनों के साथ धोर अन्याय किया गया । संवा से रोकने लगे और मनमानी कारवाई करने लगे। यानी कुछ सप्ताह हवे पंडे लोगों ने अतीव चालबाजी वि० सं० १९०३ में पण्डों को मजबूर किया गया से यह फैसला हासिल कर लिया कि पहली प्रकार के कि श्री मंदिर जी में नियत समय पर प्रक्षाल और केशर पण्डे श्री केसरिया नाथजी के भण्डार से ३५ रु. चढाया जावे पूजन में देरी न हो किसी किसम की सैकडा लिया करेंगे और द्विनीय प्रकार के पण्डे मन्दिर रुकावट न की जावे, खुशी से कोई कुछ देवे तो जी में बोलियों का कुल रुपया जो हर रोज पूजा किसी प्रकार की जबरदस्ती न करें तत्पश्चात् यह तय आंगी आदि के सम्बन्ध में यात्री बोलते हैं लिया करेंगे। पाया कि पंडों को केवल १) रु० प्रतिदिन सेवा के (अनुसंधान पृ. १६. उपर जुओ.) Printed by Mansukhlul Hiralal at Jain Bhaskaroday P. Press, Dhunji Street, Bombay 3. and published by Hurilal N. Mankar for Shri Jain Swetamber Conference at 90 Pychoni, Bombay

Loading...

Page Navigation
1 ... 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184