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२. ध्यानशतक
वीरं सुक्कज्झाणग्गिदड्डकम्मिंधणं पणमिऊणं। जोईसरं सरण्णं झाणज्झयणं पवक्खामि॥
शुक्लध्यान की अग्नि से जिन्होंने कर्म-ईंधन को जला डाला ऐसे योगीश्वर और शरण्य भगवान् महावीर को प्रणाम कर, मैं 'ध्यानाध्ययन' का प्रवचन करूंगा। २. जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं जं चलं तयं चित्तं।
तं होज्ज भावणा वा अणुपेहा वा अहव चिंता॥
जो स्थिर अध्यवसाय (एकाग्रता प्राप्त मन) है उसे ध्यान और जो अस्थिर अध्यवसाय है उसे चित्त कहा जाता है। चित्त तीन प्रकार का होता है
१.भावना-ध्यान के अभ्यास की क्रिया। २. अनुप्रेक्षा-जिस विषय पर स्मृति टिकी हुई थी, उस स्मृतिध्यान से च्युत मन को पुनः उसी स्मृति-ध्यान पर स्थिर करने
का प्रयत्न। ३.चिंता-चिंतन। ३. अंतोमुहुत्तमेत्तं चित्तावत्थाणमेगवत्थुम्मि।
छउमत्थाणं झाणं जोगनिरोहो जिणाणं तु॥ छद्मस्थ-अकेवली के एक वस्तु (पर्याय) में चित्त का एकाग्रतात्मकध्यान अंतर्मुहूर्त मात्र का होता है। फिर वह ध्यान-धारा भिन्न पर्याय में परिवर्तित हो जाती है। केवली के योग-निरोधात्मक ध्यान होता है। ४. अंतोमुहुत्तपरओ चिंता झाणंतरं व होज्जाहि।
सुचिरंपि होज्ज बहुवत्थुसंकमे झाणसंताणो॥
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