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३. योगशतक : ७१
८४. रयणाई लद्धीओ अणिमादीयाओ तह य चित्ताओ। आमोसहाइयाओ
तहातहायोगवुड्डीए॥ जैसे-जैसे योग की वृद्धि होती है वैसे-वैसे योगी के रत्न आदि लब्धियां, अणिमा तथा आम\षधि आदि लब्धियां प्राप्त होती हैं।
८५. एतीए एस जुत्तो सम्म असुहस्स खवग मो णेओ।
इयरस्स बंधगो तह सुहेणमिय मोक्खगामि त्ति॥
सम्यक् प्रकार से इन योगजविभूतियों से युक्त योगी अशुभ कर्मों का क्षय करने वाला तथा शुभ कर्मों को बांधने वाला होता है और वह सुखपूर्वक (सहजतया) मोक्षगामी अर्थात् भवान्तकृत् हो जाता है।
८८.
८९.
८६. कायकिरियाए दोसा खविया मंडुक्कचुण्णतुल्ल त्ति।
ते चेव भावणाए नेया तच्छारसरिस ति॥ ८७. एवं पुण्णं पि दुहा मिम्मय-कणयकलसोवमं भणियं।
अण्णेहि वि इह मग्गे नामविवज्जासभेएणं ।। तह कायपाइणो ण पुण चित्तमहिकिच्च बोहिसत्त त्ति। होति तहभावणाओ आसययोगेण सुद्धाओ। एमाइ जहोइयभावणाविसेसाउ जुज्जए सव्वं । मुक्काहिनिवेसं खलु निरूवियव्वं सबुद्धीए॥
(चतुर्भिः कलापकम्) शारीरिक क्रिया से क्षीण किए हुए दोष मंडूक के चूर्ण तुल्य होते हैं और वे दोष जब भावना-मनोयोगपूर्वक क्षीण किए जाते हैं तब वे मंडूक की भस्मतुल्य होते हैं।' पुण्य के दो प्रकार हैं-मिट्टी के घड़े के समान तथा स्वर्ण के घड़े के समान। बौद्ध मतवाले भी योगमार्ग में नाम भेद से इन दो प्रकार के पुण्यों को मानते हैं-(१) मिथ्यादृष्टि का पुण्य-मृण्मयघटतुल्य, (२) सम्यग्दृष्टि का पुण्य-स्वर्णघट तुल्य। १. वर्षाकाल में मंडूक चूर्ण से अधिक मंडूको की उत्पत्ति होती है। मंडूक भस्म से
कुछ नहीं होता।
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