Book Title: Jain Yoga ke Sat Granth
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 132
________________ ६. स्वरूपसम्बोधन : ११७ इस प्रकार आत्मा अनेक धर्मात्मक है। अनेक धर्मात्मकता के कारण बंध और मोक्ष होता है। उनके अपने-अपने कारणों से वह बंध और मोक्ष के फल में परिणत होता है। १०. कर्त्ता यः कर्मणां भोक्ता, तत्फलानां स एव तु। बहिरन्तरुपायाभ्यां, तेषां मुक्तत्वमेव हि॥ जो आत्मा कर्मों को करता है वही उनके फल को भोगता है। वही आत्मा बहिरंग और अंतरंग-तपश्चर्या के इन दो उपायों से मुक्त भी हो जाता है। ११. सदृष्टि-ज्ञान-चारित्रमुपायः स्वात्मलब्धये। तत्त्वे याथात्म्यसंस्थित्यमात्मनो दर्शनं मतम्॥ यथावद्वस्तुनिर्णीतिः, सम्यग्ज्ञानं प्रदीपवत्। तत्स्वार्थव्यवसायात्म, कथंचित् प्रमितेः पृथक्॥ दर्शन-ज्ञानपर्यायेषूत्तरोत्तरभाविषु स्थिरमालंबनं यद्वा, माध्यस्थ्यं सुखदुःखयोः॥ १४. ज्ञाता द्रष्टाऽहमेकोऽहं, सुखे दुःखे न चापरः। इतीदं भावनादाढ्य, चारित्रमथवाऽपरम्॥ (चतुर्भिः कलापकम्) अंतरंग उपाय ये हैं-सम्यग्दृष्टि, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र-इन तीनों का समवाय आत्मोपलब्धि का उपाय है। तत्त्व के यथार्थ स्वरूप में आत्मा का अवस्थान सम्यग्दर्शन है। प्रदीप की भांति वस्तु का यथार्थ निर्णय करना सम्यग्ज्ञान है। ज्ञान स्व और पदार्थ का निश्चय करता है। वह प्रमिति (अज्ञान-निवृत्तिरूप प्रमाण का फल) से कथंचित् पृथक् है। पदार्थ के प्रति ममत्व का त्याग कर अपनी आत्मा में उत्तरोत्तरभावी ज्ञान-दर्शन के पर्यायों में स्थिर आलंबनपूर्वक रहना चारित्र है। अथवा सुख-दुःख में मध्यस्थ रहना चारित्र है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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