Book Title: Jain Yoga ke Sat Granth
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 133
________________ ११८ : जैन योग के सात ग्रंथ मैं ज्ञाता-द्रष्टा हूं। सुख-दुःख में मैं अकेला हूं, दूसरा कोई साथी नहीं है। इस भावना की दृढ़ता भी चारित्र है । तदेतन्मूलहेतोः स्यात्, कारणं सहकारकम् । तद्बाह्यं देशकालादि, तपश्च बहिरङ्गकम्॥ आत्मोपलब्धि का मूल हेतु है - रत्नत्रयी - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र । बाह्यवर्ती देश, काल आदि तथा बाह्य तप उसका सहकारी कारण है । १५. १६. इतीदं सर्वमालोच्य, सौस्थ्ये दौःस्थ्ये च शक्तितः । भावयेन्नित्यं, रागद्वेषविवर्जितम्॥ आत्मानं इस प्रकार आत्म-स्वरूप की सर्वथा आलोचना कर सुख-दुःख की सामग्री सामने आने पर आत्मा के राग-द्वेष रहित स्वरूप की ही यथाशक्ति भावना करे । नैवावगाहते। नीलीरक्तेऽम्बरे रागो, दुराधेयो हि कौङ्कुमः ॥ कषायों से रंजित चित्त तत्त्व का अवगाहन नहीं कर सकता। नीले रंग के कपड़े पर कुंकुम का रंग निश्चित ही नहीं चढ़ सकता । १७. कषायैः रंजितं चेतस्तत्त्वं सर्वतः । ततस्त्वं दोषनिर्मुक्त्यै, निर्मोहो भव उदासीनत्वमाश्रित्य, तत्त्वचिन्तापरो भव ॥ इसलिए तुम दोषों से मुक्त होने के लिए सब प्रकार से निर्मोह हो जाओ। तुम संसार से उदासीन होकर आत्मा के चिंतन में तत्पर बनो । १८. हेयोपादेयतत्त्वस्य, स्थितिं विज्ञाय हेयतः । निरालम्बो भवान्यस्मादुपेये सावलम्बनः ॥ हेय और उपादेय तत्त्व की स्थिति ( मर्यादा) को जानकर हेय को छोड़ कर निरालंब हो जा तथा उपादेय को ग्रहण कर सावलंबन बन । For Private & Personal Use Only १९. Jain Education International www.jainelibrary.org

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