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७. ज्ञानसार चयनिका : १२५
'मैं शुद्ध आत्मद्रव्य ही हूं, शुद्धज्ञान केवलज्ञान ही मेरा गुण है। मैं इनसे अन्य नहीं हूं, और न अन्य मेरे हैं' यह चिंतन ही मोह के लिए उत्कट शस्त्र है।
११. यो न मुह्यति लग्नेषु, भावेष्वौदयिकादिषु।
आकाशमिव पंकेन, नाऽसौ पापेन लिप्यते॥
जो जीव में विद्यमान औदयिक आदि भावों में मूढ नहीं होता, वह पापों से लिप्त नहीं होता जैसे आकाश पंक से।
१२. अनारोपसुखं
मोहत्यागादनुभवन्नपि। आरोपप्रियलोकेषु, वक्तुमाश्चर्यवान् भवेत्॥ मोह के परित्याग से योगी आरोपरहित स्वाभाविक सुख का अनुभव करता है, किन्तु आरोपप्रिय लोगों में अपने अनुभव को कहने में आश्चर्य करता है।
१३. निर्वाणपदमप्येकं, भाव्यते यन्मुहुर्मुहुः।
तदेव ज्ञानमुत्कृष्टं, निर्बन्धो नास्ति भूयसा॥
एक भी निर्वाणसाधक पद यदि आत्मा के साथ बार-बार भावित होता है तो वही उत्कृष्ट ज्ञान है। ज्ञान की अधिकता से निर्वाण की प्रतिबद्धता नहीं है।
१४. वादांश्च प्रतिवादांश्च, वन्दतोऽनिश्चितांस्तथा।
तत्त्वान्तं नैव गच्छन्ति, तिलपीलकवद् गतौ॥
वाद और प्रतिवाद यथार्थ नहीं हैं, निरर्थक हैं। वाद-प्रतिवाद करने वाले तत्त्व का पार पाने में वैसे ही असमर्थ हैं, जैसे कोल्हू का बैल अपनी गति (मार्ग) का पार पाने में अक्षम होता है।
१५. अस्ति चेद् ग्रंथिभिज्ज्ञानं, किं चित्रैस्तंत्रयंत्रणैः।
प्रदीपाः क्वोपयुज्यन्ते, तमोघ्नी दृष्टिरेव चेत्॥
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