Book Title: Jain Yoga ke Sat Granth
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 145
________________ १३० : जैन योग के सात ग्रंथ निःस्पृह मुनि की शय्या है पृथ्वीतल, भोजन है भिक्षा में प्राप्त अन्न, वस्त्र हैं जीर्ण-शीर्ण और घर है वन। फिर भी आश्चर्य है कि वह चक्रवर्ती से भी अधिक सुखी है। ३६. परस्पृहा महादुःखं, निस्पृहत्वं महासुखम्। एतदुक्तं समासेन, लक्षणं सुखदुःखयोः॥ 'पर' की स्पृहा महान् दुःख है, निस्पृहा महान् सुख है। सुख और दुःख का यह संक्षेप में लक्षण बताया गया है। ३७. मन्यते यो जगत् तत्त्वं, स मुनिः परिकीर्तितः। सम्यक्त्वमेव तन्मौनं, मौनं सम्यक्त्वमेव वा॥ जो जगत् के तत्त्व को जानता है, उसे मुनि कहा गया है। सम्यक्त्व ही मौन है और मौन ही सम्यक्त्व है। ३८. आत्माऽऽत्मन्येव यच्छुद्धं, जानात्यात्मानमात्मना। सेयं रत्नत्रये ज्ञप्तिरुच्याचारैकता मुनेः॥ आत्मा आत्मा में ही आत्मा के द्वारा विशुद्ध आत्मा को जानता है, यही मुनि की रत्नत्रयी में ज्ञान, श्रद्धा और आचार की एकात्मकता है। ३९. यथा शोफस्य पुष्टत्वं, यथा वा वध्यमण्डनम्। तथा जानन् भवोन्मादमात्मतृप्तो मुनिर्भवत्॥ जैसे सूजन की पृष्टता तथा वध्य पुरुष का मंडन अवास्तविक है, वैसे ही भव का उन्माद अवास्तविक है। यह जानकर मुनि आत्मतृस रहे। ४०. सुलभं वागनुच्चारं, मौनमेकेन्द्रियेष्वपि। पुद्गलेष्वप्रवृत्तिस्तु, योगानां मौनमुत्तमम्॥ एकेन्द्रिय प्राणियों में भी वाणी का अनुच्चार रूप मौन सुलभ है, किन्तु मन, वचन, काया की पुद्गलों में अप्रवृत्ति ही उत्तम मौन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158