Book Title: Jain Yoga ke Sat Granth
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 147
________________ १३२ : जैन योग के सात ग्रंथ ४६. नयेषु परचालने । स्वार्थसत्येषु, मोघेषु समशीलं मनो यस्य स मध्यस्थो महामुनिः ॥ अपने-अपने अभिप्राय में सत्य तथा दूसरों का निराकरण करने में सर्वथा निष्फल - ऐसे नयों में जिसका मन सम-स्वभावी है, वह महामुनि मध्यस्थ होता है। ४७. मनः स्याद्व्यापृतं यावत्, परदोषगुणग्रहे । कार्यं व्यग्रं वरं तावन् मध्यस्थेनात्मभावने ॥ जब तक मन पर-दोष और पर - गुण ग्रहण करने में व्यापृत है तब तक मध्यस्थ पुरुष को अपना मन आत्म-भावना में व्यग्र करना श्रेष्ठ है। ४८. विभिन्ना अपि पन्थानः, समुद्रं सरितामिव । मध्यस्थानां परं ब्रह्म प्राप्नुवन्त्येकमक्षयम् ॥ जैसे विभिन्न मार्गों से आती हुई नदियां समुद्र को प्राप्त हो जाती हैं, वैसे ही विभिन्न मार्गों पर चलनेवाले मध्यस्थ व्यक्ति भी एक और अक्षय परम परमात्मा को प्राप्त हो जाते हैं। ४९. स्वोगमं रागमात्रेण, द्वेषमात्रात् परागमम् । न श्रयामस्त्यजामो वा, किन्तु मध्यस्थया दृशा । हम अपने आगमों को रागवश स्वीकार नहीं करते और दूसरों के आगमों का द्वेषवश परित्याग नहीं करते, किन्तु मध्यस्थदृष्टि से उनका स्वीकार या परित्याग करते हैं। ५०. यस्य नास्ति परापेक्षा, स्वभावाद्वैतगामिनः । तस्य किं न भयभ्रान्तिक्लान्तिसन्तानतानवम् ॥ जिसे दूसरे की अपेक्षा नहीं है और जो स्वभाव के अद्वैत को प्राप्त करनेवाला है, उसके भय की भ्रांति से उत्पन्न क्लान्ति की परंपरा की प्रतनुता क्यों नहीं होगी ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158