Book Title: Jain Yoga ke Sat Granth
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 150
________________ ७. ज्ञानसार चयनिका : १३५ ६२. येषां भ्रूभंगमात्रेण, भज्यन्ते पर्वता अपि। तैरहो कर्मवैषम्ये, भूपैर्भिक्षाऽपि नाप्यते॥ जिनकी भृकुटी तनने मात्र से पर्वत भी चूर-चूर हो जाते हैं, ऐसे राजाओं को कर्म की विषमता होने पर भिक्षा भी नहीं मिलती, कितना आश्चर्य! ६३. विषमा कर्मणः सृष्टिः, दृष्टा करभपृष्ठवत्। जात्यादिभूतिवैषम्यात्, का रतिस्तत्र योगिनः॥ कर्मों की यह सृष्टि जाति आदि की उत्पत्ति की विषमता के कारण ऊंट के पीठ की भांति वक्र है, विषम है। ऐसी विषम सृष्टि में योगी को रति कैसे हो? ६४. आरूढाः प्रशमश्रेणिं, श्रुतकेवलिनोऽपि च। भ्राम्यन्तेऽनन्तसंसारमहो दुष्टेन कर्मणा॥ यह आश्चर्य है कि उपशम श्रेणी पर आरूढ़ चौदह पूर्वधरों को भी दुष्ट कर्म अनंत संसार में भटका देते हैं। ६५. तैलपात्रधरो यद्वद्, राधावेधोद्यतो यथा। क्रियास्वनन्यचित्तः स्याद्, भवभीतस्तथा मुनिः॥ जिस प्रकार तैलपात्र धारण करने वाला तथा राधावेध साधने वाला व्यक्ति अपनी क्रिया में अनन्यचित्त होता है, वैसे ही भवभ्रमण से भयभीत मुनि अपनी संयम-क्रियाओं में दत्तचित्त होता है। ६६. विषं विषस्य वन्हेश्च, वन्हिरेव यदौषधम्। तत्सत्यं भवभीतानामुपसर्गेऽपि यन्न भीः॥ विष की औषधि है विष और अग्नि की औषधि है अग्नि। इसलिए यह सच है कि जो भव-भ्रमण से भीत हैं, उन्हें उपसर्गों से भय नहीं होता। ६७. लोकसंज्ञामहानद्यानुस्रोतोऽनुगा न के॥ प्रतिस्रोतोऽनुगस्त्वेको, राजहंसो महामुनिः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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