Book Title: Jain Yoga ke Sat Granth
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 154
________________ ७. ज्ञानसार चयनिका : १३९ मुनि शास्त्रदृष्टि से समस्त शब्दब्रह्म को अवगत कर, अपने अनुभव से स्वसंवेद्य परम ब्रह्म को जान लेता है। ८४. मोक्षेण योजनाद् योगः, सर्वोप्याचार इष्यते। विशिष्य स्थानवार्थालम्बनैकाग्रयगोचरः॥ मोक्ष के साथ योजित करने के कारण समस्त आचार 'योग' कहलाता है। उस योग के पांच प्रकार हैं-स्थान (आसन), वर्ण अर्थज्ञान, आलंबन तथा एकाग्रता। ८५. ध्याता ध्येयं तथा ध्यानं, त्रयं यस्यैकतां गतम्। मुनेरनन्यचित्तस्य, तस्य दुःखं न विद्यते॥ जिस अनन्यचित्त वाले मुनि को ध्याता, ध्येय और ध्यान-इन तीनों की एकता प्राप्त है, उसके दुःख नहीं होता। ८६. ध्यातान्तरात्मा ध्येयस्तु, परमात्मा प्रकीर्तितः। ध्यानं चैकाग्र्यसंवित्तिः, समापत्तिस्तदेकता॥ ध्याता है-अंतरात्मा, ध्येय है-परमात्मा और ध्यान है-एकाग्रता की संवित्ति। इन तीनों की एकता ही समापत्ति है। ८७. मणाविव प्रतिच्छाया, समापत्तिः परमात्मनः। क्षीणवृत्तौ भवेद् ध्यानादन्तरात्मनि निर्मले॥ मणि में जैसे प्रतिबिम्ब उभरता है वैसे ही क्षीणवृत्ति वाले निर्मल अंतरात्मा में ध्यान से परमात्मा का प्रतिबिंब उभरता है। यही समापत्ति है। ८८. आपत्तिश्च ततः पुण्यतीर्थकृत्कर्मबन्धतः। तद्भावाभिमुखत्वेन, संपत्तिश्च क्रमाद् भवेत्॥ समापत्ति के पश्चात् पुण्य प्रकृति स्वरूप तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन होता है, यही आपत्ति है। तीर्थंकर के अभिमुखत्व से क्रमशः आत्मिक संपत्ति का लाभ होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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