Book Title: Jain Yoga ke Sat Granth
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 148
________________ ७. ज्ञानसार चयनिका : १३३ ५१. न गोप्यं क्वापि नारोप्यं, हेयं देयं च न क्वचित्। क्व भयेन मुनेः स्थेयं, ज्ञेयं ज्ञानेन पश्यतः॥ जो मुनि ज्ञान से ज्ञेय को देखता है, उसके लिए कहीं कोई गोपनीय, आरोप करने योग अथवा हेय और उपादेय भी नहीं है। फिर वहां भय कहां टिक पाएगा? ५२. मयूरी ज्ञानदृष्टिश्चेत्, प्रसर्पति मनोवने। वेष्टनं भयसर्पाणां, न तदानन्दचन्दने॥ यदि ज्ञानदृष्टिरूपी मयूरी मनोवन में घूमती रहती है, तो आनन्दरूपी चंदनवृक्ष पर भयरूपी सों का आवेष्टन नहीं रह सकता। ५३. चित्ते परिणतं यस्य, चारित्रमकुतोभयम्। अखण्डज्ञानराज्यस्य, तस्य साधोः कुतो भयम्॥ जिसके चित्त में अभयरूपी चारित्र परिणत हो गया है, उस अखंड ज्ञानराज्य के अधिपति साधु को भय कैसा? ५४. गुणैर्यदि न पूर्णोऽसि, कृतमात्मप्रशंसया। गुणैरेवासि पूर्णश्चेत्, कृतमात्मप्रशंसया॥ यदि तुम गुणों से परिपूर्ण नहीं हो तो आत्मप्रशंसा से क्या? यदि तुम गुणों से परिपूर्ण हो तो आत्मप्रशंसा से क्या? ५५. आलंबिता हिताय स्युः, परैः स्वगुणरश्मयः। ____ अहो! स्वयं गृहीतास्तु, पातयन्ति भवोदधौ॥ दूसरे यदि तुम्हारे गुणरूपी रस्सी का आलंबन लेते हैं तो वह उनके लिए हितावह है लेकिन आश्चर्य है कि व्यक्ति यदि स्वयं अपने गुणरूपी रस्सी को थामता है तो वह उसे भवसिन्धु में गिरा देती है। ५६. रूपे रूपवती दृष्टिदृष्ट्वा रूपं विमुह्यति। मज्जत्यात्मनि नीरूपे, तत्त्वदृष्टिस्त्वरूपिणी॥ रूपवती दृष्टि रूप को देखकर रूप में विमूढ़ बन जाती है। रूपरहित तत्त्वदृष्टि रूपरहित आत्मा में लीन हो जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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