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७. ज्ञानसार चयनिका : १३१
विद्याञ्जनस्पृशा ।
अविद्यातिमिरध्वंसे, दृशा पश्यन्ति परमात्मानं, आत्मन्येव हि योगिनः ।। अविद्यारूपी अंधकार का नाश हो जाने पर योगी विद्या - अंजन से अंजित दृष्टि से आत्मा में ही परमात्मा को देखते हैं ।
४१.
सर्वदा सुलभो
भवे ।
देहात्माद्यविवेकोऽयं, भवकोट्यापि
तद्भेदविवेकस्त्वतिदुर्लभः ॥
देह और आत्मा के अभेद का अविवेक सदा सुलभ है। किन्तु करोड़ों जन्मों के उपरांत भी देह और आत्मा का भेद - विज्ञान अत्यंत दुर्लभ है।
४२.
आत्मन्येवात्मनः कुर्यात्, यः षट्कारकसंगतिम् । क्वाऽविवेकज्वरस्यास्य, वैषम्यं जडमज्जनात् ॥
जो आत्मा में ही आत्मा की छह कारकमयी संगति स्थापित करता है, उसके पुद्गलों में निमग्न होने से उत्पन्न अविवेकरूपी ज्वर की विषमता कैसे संभव होगी ?
४३.
मध्यस्थेनान्तरात्मना ।
स्थीयतानुपालम्भं, कुतर्ककर्करक्षेपैस्त्यज्यतां
बालचापलम् ॥
अंतरात्मा से मध्यस्थ होकर, उपालंभ न आए, इस प्रकार रहो । कुतर्कों के कंकर फेंकने रूप बाल- चापल्य को छोड़ो।
४४.
युक्तिगविं,
मध्यस्थस्यानुधावति ।
मनोवत्सो तामाकर्षति पुच्छेन,
तुच्छाग्रहमनः कपिः ॥
मध्यस्थ व्यक्ति का मनरूपी बछड़ा युक्तिरूपी गाय के पीछे दौड़ता है जबकि मिथ्याग्रही व्यक्ति का मनरूपी बन्दर युक्तिरूपी गाय की पूंछ पकड़कर अपनी ओर खींचता है।
४५.
१. आत्मा ही कर्त्ता है, आत्मा ही कर्म है, आत्मा ही करण है, आत्मा ही संप्रदान है, आत्मा ही अपादान है और आत्मा ही अधिकरण है ।
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