Book Title: Jain Yoga ke Sat Granth
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 142
________________ ७. ज्ञानसार चयनिका : १२७ जब तक शिक्षा को आत्मसात् करने से तथा आत्मस्वरूप के बोध से अपना गुरुत्व प्रगट नहीं होता. तब तक उत्तम गुरु का आश्रय लेना चाहिए। २१. क्रियाविरहितं हन्त, ज्ञानमात्रमनर्थकम्। गतिं विना पथज्ञोऽपि, नाप्नोति पुरमीप्सितम्॥ क्रियारहित केवल ज्ञान अनर्थकारी होता है। मार्ग को जानने वाला भी यदि गतिविहीन है तो वह इच्छित नगर को नहीं पा सकता। २२. गुणवृद्ध्यै ततः कुर्यात्, क्रियामस्खलनाय वा। एकं तु संयमस्थानं, जिनानामवतिष्ठते॥ गुण की वृद्धि के लिए तथा संयम-स्थान से स्खलित न होने के लिए क्रिया करनी चाहिए। केवल तीर्थंकरों का ही संयम-स्थान अप्रतिपाती होता है। २३. स्वगुणैरेव तृप्तिश्चेदाकालमविनश्वरी। ज्ञानिनो विषयैः किं तैभवेत् तृप्तिरित्वरी॥ ज्ञानीजनों को अपने गुणों से ही जीवनपर्यन्त अविनश्वर तृप्ति का अनुभव होता है तो फिर अल्पकालिक तृप्ति देने वाले उन विषयों का क्या प्रयोजन? २४. या शान्तैकरसास्वादाद, भवेत् तृप्तिरतीन्द्रिया। सा न जिह्वेन्द्रियद्वारा, षड्रसास्वादनादपि॥ शांतरस के अनुपम रसास्वादन से जो इन्द्रियातीत तृप्ति होती है, वह तृप्ति जिह्वेन्द्रिय के द्वारा षड्सभोजन से भी नहीं होती। २५. संसारे स्वप्नवन् मिथ्या, तृप्तिः स्यादाभिमानिकी। तथ्या तु भ्रान्तिशून्यस्य, साऽऽत्मवीर्यविपाककृत्॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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