Book Title: Jain Yoga ke Sat Granth
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 138
________________ ७. ज्ञानसार चयनिका १. पूर्णता या परोपाधेः, सा याचितकमण्डनम्। या तु स्वाभाविकी सैव, जात्यरत्नविभानिभा॥ पर-वस्तु से प्राप्त पूर्णता मांग कर लाई गई वस्तु से किए गए मंडनक के समान है। स्वभाव से प्राप्त पूर्णता जात्यरत्न की कान्ति के समान है। अवास्तवी विकल्पैः स्यात्, पूर्णताऽब्धेरिवोर्मिभिः। पूर्णानन्दस्तु भगवान्, स्तिमितोदधिसन्निभः॥ विकल्पों से आत्मा की पूर्णता मानना वैसे ही अवास्तविक है जैसे लहरों से समुद्र की पूर्णता मानना। आत्मा पूर्णानन्दस्वरूप है। वह अथाह समुद्र की भांति अतरंगित है, स्थिर है। ३. अपूर्णः पूर्णतामेति, पूर्यमाणस्तु हीयते। पूर्णानन्दस्वभावोऽयं, जगदद्भुतदायकः॥ यह आश्चर्यकारी घटना है। जैसे-जैसे आत्मिक सुख की पूर्णता होती है, वैसे-वैसे इन्द्रिय-सुख घटता चला जाता है, क्योंकि आत्मा पूर्णानंद स्वभाव वाला है। ४. प्रत्याहृत्येन्द्रिव्यूह, समाधाय. मनो निजम्। दधच्चिन्मात्रविश्रांतिर्मग्न- इत्यभिधीयते॥ जो इन्द्रियों को विषयों से हटाकर, अपने मन को समाहित कर, चैतन्य में ही विश्राम करता है, वह मग्न कहलाता है। स्वभावसुखमग्नस्य, जगत्तत्त्वावलोकिनः। कर्तृत्वं नान्यभावानां, साक्षित्वमवशिष्यते॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158