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६. स्वरूपसम्बोधन : ११९
२०. स्वं परं चेति वस्तु त्वं, वस्तुरूपेण भावय।
उपेक्षाभावनोत्कर्षपर्यन्ते शिवमाप्नुहि॥ तुम स्व-आत्मतत्त्व को तथा पर-आत्मेतर तत्त्व को यथार्थरूप में जानो। तुम उपेक्षा-राग-द्वेष रहित भावना के उत्कर्ष-बिन्दु पर पहुंच कर मोक्ष को प्राप्त करो।
२१. मोक्षेऽपि यस्य नाकांक्षा, स मोक्षमधिगच्छति।
इत्युक्तत्वाद्धितान्वेषी, कांक्षां न क्वापि योजयेत्॥ 'जिसमें मोक्ष की भी आकांक्षा नहीं है, वह मोक्ष को प्राप्त होता है'-इस सूक्त को ध्यान में रखकर हितान्वेषी साधक किसी की भी आकांक्षा न करे।
२२. साऽपि च स्वात्मनिष्ठत्वात्, सुलभा यदि चिन्त्यते।
आत्माधीने सुखे तात!, यलं किं न करिष्यसि॥ वह आकांक्षा स्वात्मनिष्ठ होने के कारण सुलभ है, यदि तुम ऐसा सोचते हो तो हे तात! सुख भी तो आत्मा के अधीनस्थ है, उसके लिए प्रयत्न क्यों नहीं करते?
२३. स्वं परं विद्धि तत्रापि, व्यामोहं छिन्धि किन्त्विमम्।
अनाकुलस्वसंवेद्य, स्वरूपे तिष्ठ केवले॥ तुम स्व-आत्मा और पर-पुद्गल-दोनों को जानो और इस स्वपर के व्यामोह को भी नष्ट कर दो। तुम केवल अनाकुल-स्वसंवेद्य स्वरूप में स्थिर हो जाओ।
२४. स्वः स्वं स्वेन स्थितं स्वस्मै, स्वस्मात् स्वस्याविनश्वरम्।
स्वस्मिन् ध्यात्वा लभेत स्वोत्थमानन्दममृतं पदम्॥
आत्मा अपने द्वारा, अपने लिए, अपनी आत्मा से, अपने में स्थित अपनी आत्मा का ध्यान कर, आत्मोत्थित अविनश्वर आनन्दमय अमृतपद को प्राप्त करे।
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