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१२० : जैन योग के सात ग्रंथ २५. इति स्वतत्त्वं परिभाव्य वाङ्मयं,
य एतदाख्याति शृणोति चादरात्। करोति तस्मै परमार्थसम्पदं, स्वरूपसम्बोधनपंचविंशतिः ॥
यह ‘स्वरूपसम्बोधन' पचीसी उसको परमार्थ-संपद् उपलब्ध कराती है, जो निजात्मस्वरूप का परिशीलन कर इस वाङ्मय का आख्यान करता है और आदर से इसको सुनता है।
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