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११६ : जैन योग के सात ग्रंथ ५. स्वदेहप्रमितश्चार्य, ज्ञानमात्रोऽपि नैव सः।
ततः सर्वगतश्चायं, विश्वव्यापी न सर्वथा।
आत्मा स्वदेह परिमित भी है और समुद्घात की अपेक्षा स्वदेह परिमित नहीं भी है। आत्मा चैतन्य की अपेक्षा ज्ञानमात्र भी है और अन्य धर्मों की अपेक्षा ज्ञानमात्र नहीं भी है। आत्मा संपूर्ण ज्ञेय का ज्ञाता होने के कारण सर्वगत है और देहगत होने के कारण विश्वव्यापी-सर्वगत नहीं भी है।
६. नानाज्ञानस्वभावत्वादेकोऽनेकोऽपि नव सः।
चैतन्यैकस्वभावत्वादेकानेकात्मको भवेत्॥
आत्मा नानाज्ञान स्वभाव के कारण एक नहीं है और एक चैतन्य स्वभाव के कारण वह अनेक भी नहीं है। इसलिए आत्मा एकअनेकात्मक है।
नाऽवक्तव्यः स्वरूपायैर्निर्वाच्यः परभावतः। तस्मान्नैकान्ततो वाच्यो, नापि वाचामगोचरः॥
आत्मा स्वरूप-स्वभाव आदि की अपेक्षा अवक्तव्य नहीं है तथा परभाव की अपेक्षा वक्तव्य भी नहीं है। इसलिए आत्मा एकांततः न वाच्य है और न अवाच्य है।
८. स स्याद्विधिनिषेधात्मा, स्वधर्मपरधर्मयोः।
स मूर्तिर्बोधमूर्तित्वादमूर्तिश्च विपर्ययात्॥
आत्मा कथंचित् विध्यात्मक है और कथंचिद् निषेधात्मक है। वह स्वधर्म की अपेक्षा विध्यात्मक है और परधर्म की अपेक्षा निषेधात्मक है। आत्मा रूपी भी है और अरूपी भी है। वह बोधमूर्ति-ज्ञान के आकार से युक्त होने के कारण रूपी है और पौद्गलिक शरीर से भिन्न होने के कारण वह अरूपी है। ९. इत्याद्यनेकधर्मत्वं, बंधमोक्षौ तयोः फलम्।
आत्मा स्वीकुरुते तत्तत्कारणैः स्वयमेव तु॥
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